SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 254
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वडिबंधे सामित्तं २३३ २७४. ओरालियमि० धुविगाणं चत्तारिवाड्डि-हाणि-अवढि० कस्स० ? अण्णद० । सेसाणं परियत्तमाणिगाणं चत्तारिवाड्डि-हाणि-अवढि० कस्स० ? अण्णद० । अवत्त० कस्स० ? अण्णद० परियत्तमाण० पढमसमयबंधगस्स । देवगदिपंचग० संखेंजगुणवडि० कस्स० ? अण्णद० सम्मादि० । २७५. वेउब्वियमि० पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०-ओरा०. तेजा०-क०-वण्ण०४-अगु०४-बादर-पज्जत्त-पत्ते०-णिमि०-तित्थ०-पंचंत० असंखेंजगुणवड्डी कस्स० १ अण्णद० । सेसाणं असंखेंजगुणवड्डी कस्स ? अण्णद० । अवत्त. कस्स० ? अण्णद० परियेत्तमाणपढमसमयपढमबंधगस्स। एवं आहारमि०-कम्मइ०-अणाहारगेसु । णवरि अप्पप्पणो धुविगाओ णादव्वाओ। २७६. इत्थिवेदगेसु ओघं । णवरि अवत्त० मणुसिभंगो। एवं णqसगे। पुरिस० ओघं । अवगदवेदे ओघं । णवरि अवत्त० परिपउमाण० उवसम० पढमसमयबंधगम्स । एवं सुहुमसं० । णवरि अवत्त० णत्थि । कोधादि०४ ओघं । णवरि अप्पप्पणो धुविगाओ णादवाओ। ओघके समान है । इसी प्रकार सब अपर्याप्तक, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायिक जीवोंमें जानना चाहिए। २७४. औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थित पदका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है। शेष परावर्तमान प्रकृतियोंकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थितपदका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है। अवक्तव्यपदका स्वामी कौन है ? अन्यतर परावर्तमान प्रकृतियोंका प्रथम समयमें बन्ध करनेवाला जीव स्वामी है। देवगतिपञ्चककी संख्यातगुणवृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि जीव स्वामी है। २७५. वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तरायकी असंख्यातगुणवृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है। शेष प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणवृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है । अवक्तव्यपदका स्वामी कौन है ? परावर्तमान प्रकृतियोंका प्रथम समयमें बन्ध करनेवाला अन्यतर जीव स्वामी है। इसी प्रकार आहारकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी ध्रवबन्धवाली प्रकृतियाँ जाननी चाहिए। २७६. स्त्रीवेदी जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्यपदका भङ्ग मनुष्यिनियोंके समान है। इसी प्रकार नपुंसकवेदी जीवों में जानना चाहिए । पुरुषवेदी जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। अपगतवेदी जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि इनमें जो उपशमश्रोणिसे गिरनेवाला जीव प्रथम समयमें बन्ध करता है, वह उनके अवक्तव्यपदका स्वामी है। इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्पराय संयत जीवोंमें जानना चाहिए। इतनी १. आ० प्रतौ -पढमसयबंधगस्स' इति पाठः । ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy