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________________ पदणिक्खेवे अप्पाबहुअं २२५ पगदीणं जह० वड्डी कस्स० ? अण्णदरस्स सुहुम० दुसमय-विग्गहगदिसमावण्णस्स तस्स जह० वड्डी एगमेवपदं । णवरि देवगदिपंचगस्स ओरालियमिस्सभंगो । णवरि ओघो०'। किंचि विसेसो। एवं जहण्णयं समत्तं । एवं सामित्तं समत्त। अप्पाबहुअं २५६. अप्पाबहुगं दुविधं-जहण्णयं उक्कस्सयं च । उक्क० पगदं। दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० चदुआउ० वेउब्वियछकं आहारदुगं सव्वत्थोवा उक्कस्सिया वड्डी । उक्क० हाणी अवट्ठाणं च दो वि तुल्लाणि विसेसाधियाणि । सेसाणं पगदीणं सव्वत्थोवा उक्क. वड्डी । उक्क० अवट्ठाणं विसेसाधियं । उक्क. हाणी विसे० । एवं ओघमंगों पंचिंदिय-तस०२-कायजोगि'-कोधादि०४-मदि०-सुद०-आभिणि-सुद-ओधि०-असंजद०चक्खुदं०--अचक्खुदं०-ओधिदं०-तिण्णिले०-तेउ-पम्म--सुक्कले०-भवसि०-अभवसि०सम्मादि०-खइग०-वेदग०--उवसम०-सासण०--मिच्छा०-सण्णि-असण्णि-आहारग त्ति । णवरि एदेसि सव्वेसिं पगदीणं अप्पाबहुगं । यासिं पगदीणं मरणं णत्थि० तेसिं आउगभंगो कादव्यो। स्वामी कौन है ? जिसे विग्रहगतिको प्राप्त हुए दो समय हुए ऐसा अन्यतर सूक्ष्म जीव सब प्रकृतियोंकी जघन्य वृद्धिका स्वामी है । यहाँ एक ही पद है । इतनी विशेषता है कि इनमें देवगतिपश्चकका भङ्ग औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि ओघसे कुछ विशेषता है। इस प्रकार जघन्य स्वामित्व समाप्त हुआ। इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ। अल्पवहुत्व २५६. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे चार आयु, वैक्रियिकषट्क और आहारकद्विककी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है । उससे उत्कृष्ट हानि और अवस्थान दोनों परस्परमें तुल्य होकर भी विशेष अधिक हैं। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है। उससे उत्कृष्ट अवस्थान विशेष अधिक है। उससे उत्कृष्ट हानि विशेष अधिक है । इस प्रकार ओघके समान पञ्चेन्द्रियद्विक, त्रसद्विक, काययोगी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, असंयत, चतुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, कृष्णादि तीन लेश्यावाले, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, अभव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी, असंज्ञी और आहारक जीवों में जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इन सबमें अल्पबहुत्व है । तथा जिन प्रकृतियोंके बन्धके समय मरण नहीं है, उनका भङ्ग आयुकर्मके समान कहना चाहिए। १. ता०प्रती 'मिस्समंगो णवरि । ओघो' इति पाठः । २. आ०प्रती विसेसाधियं । हाणी' इति पाटः ३. ता०प्रतौ 'विसेसाधि० । ओघभंगो' इति पाठः । ४. आ०प्रतौ 'तस० कायजोगि०' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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