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________________ २२६ महाबंधे पदेसबंधाहियारे २६०. सव्वणेरइ०-देव०-पंचमण-पंचवचि०-ओरा०-वेउ०-आहार०-अवगदवे०विभंग-मणपज-संजद-सामाइ०-छेदो०-परिहार०-सुहुमसंप०-संजदासंजद-सम्मामिच्छा० एदेसिं वि याओ पगदीओ अत्थि तेसिं मूलोघं यथा आहारसरीरं तथा कादव्वं । ओरालियमि० दोआउ० ओघं । देवगदिपंचगं वज । सेसाणं सव्वपगदीणं सव्वत्थोवा उक्क० अवट्ठाणं। उकहाणी विसे । उक्क० वड्डी असंखेंअगु० । वेउन्वियमि०-आहारमि०कम्मइ०-अणाहारगेसु हाणी अवट्ठाणं च णत्थि'। एक्कमेव वड्डी। एवं उक्कस्सयं अप्पाबहुगं समचं। २६१. जहण्णए पगदं। दुवि०-ओषे० आदे। ओषे० सव्वपगदीणं जह० वडी जह० हाणी जह० अवट्ठाणं च तिण्णि वि तुल्लाणि । एस कमो याव अणाहारग त्ति । णवरि वेउब्वियमि-आहारमि०-कम्मइ०-अणाहार० जह० वड्डी । हाणी अवठ्ठाणं णत्थि। ओरालियमिस्स० देवगदिपंचगस्स एकमेव पदं वड्वी अस्थि । सेसं णत्थि । एवं जहण्णं अप्पाबहुगं समत्त । २६२. एसिं पगदीणं अणंतभागवड्डी अणंतभागहाणी वा तेसिं पगदीणं तम्हि चेवं समए अजहणिया वड्डी वा हाणी वा अवट्ठणं वा होज, ण पुण एरिसलक्खणं पत्तेगम्हि । २६०. सब नारकी, सब देव, पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, आहारककाययोगी, अपगतवेदवाले, विभङ्गज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिक संयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायसंयत, संयतासंयत और सम्यग्मिथ्यादृष्टि इन मार्गणाओंमें जो प्रकृतियाँ हैं, उनका अल्पबहुत्व मूलोघसे जिस प्रकार आहारकशरीरका कहा है, उस प्रकार करना चाहिए। औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें दो आयुओंका भङ्ग ओघके समान है। तथा देवगतिपञ्चकको छोड़कर शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अवस्थान सबसे स्तोक है। उससे उत्कृष्ट हानि विशेष अधिक है। उससे उत्कृष्ट वृद्धि असंख्यातगुणी है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें हानि और अवस्थान नहीं है, एकमात्र वृद्धि है। इस प्रकार उत्कृष्ट अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। २६१. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश | ओघसे सब प्रकृतियोंकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान तीनों ही तुल्य हैं। यह क्रम अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें जघन्य वृद्धि है। हानि और अवस्थान नहीं हैं । औदारिकमिश्रकाययोगी जीवों में देवगतिपञ्चकका एकमात्र वृद्धिपद है, शेष दो पद नहीं है। इस प्रकार जघन्य अल्पबहुत्य समाप्त हुआ। २६२. जिन प्रकृतियोंकी अनन्तभागवृद्धि या अनन्तभागहानि होती है, उन प्रकृतियोंकी उसी समयमें अजघन्य वृद्धि, हानि या अवस्थान होवे,पर इस प्रकारका लक्षण प्रत्येकमें नहीं है। १. ता०प्रती हाणि-अवटाणं णत्थि' इति पाठः। २. तापतौ 'जह० वडिहाणिअवहाणं णत्थि' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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