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महाबँधे पदे सबंध हियारे
पसत्थ०-सुभग- सुस्सर-आदें० वड्डी हाणी अवद्वाणं च णिद्दाए भंगो । गवरि हाणी असण्णी उववण्णो । चदुसंठा० - पंचसंघ० वड्डी अवट्ठाणं ओघं । हाणी असण्णीसु उववष्णो । तित्थयरं देवगंदिभंगो। एवं सेसाणं वड्डि-हाणि अवडाणाणि णाणा० भंगो । २४६. वेउव्वियका० देवभंगो । वेउब्वियमि० पंचणा० उक्क० वड्डी कस्स० १ अणद० मिच्छादि ० तप्पाऔग्गजह० जोगट्ठाणादो उक्क० जोगद्वाणं गदो से काले सरीरपञ्जत्तिं गाहिदि त्ति तस्स उक्क० वड्डी । एवं थीणगि ०३ - दोवेदणी ०-मिच्छ० -अणंताणु०४ बुंस०- दोगोद ० - पंचंत ० । णवरि पंचणा० दोवेदणी ० ० उच्चा० - पंचत० सम्मादिट्ठिस्स वा मिच्छादिट्टिस्सं वा कादव्वं । छदंस० - बारसक० -सत्तणोक० वड्डी कस्स ० १ यो अण्णद ० सम्मादि० तप्पाओं० जहण्णजोगट्ठाणादो उक्क० जोगट्ठाणं गदो तस्स उक० बड्डी । एवं संव्वपगदीणं । आहार० - आहारमि० मणजोगिभंगो | णवरि आहारमि० से काले सरपञ्जति गाहिदि ति ।
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२४७, कम्मइगे पंचणा० थीणगि ०३ - दोवेदणी ०-मिच्छ० - अनंताणु ०४ - इत्थि ० णवुंस० णीचा ० - पंचंत० उक्क० वड्डी कस्स० ? तप्पाऑग्गजह० जोगडाणादो उक्क०
और आयकी वृद्धि, हानि और अवस्थानका भङ्ग निद्राके समान है । इतनी विशेषता है कि हानि असंज्ञियोंमें उत्पन्न हुए जीवके कहनी चाहिए। चार संस्थान और पाँच संहननकी वृद्धि और अवस्थानका भङ्ग ओघके समान है । इनकी हानि असंज्ञियोंमें उत्पन्न हुए जीवके कहनी चाहिए | तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग देवगतिके समान है। इसी प्रकार शेष प्रकृतियोंकी वृद्धि, हानि और अवस्थानका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है ।
२४३. वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें देवोंके समान भङ्ग है । वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवों में पाँच ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर मिथ्यादृष्टि जीव तत्प्रायोग्य जघन्य योगस्थानसे उत्कृष्ट योगस्थानको प्राप्त होकर अनन्तर समयमें शरीरपर्याप्तिको पूर्ण करेगा, वह उनकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है । इसी प्रकार स्त्यानगृद्धित्रिक, दो वेदनीय, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, नपुंसकवेद, दो गोत्र और पाँच अन्तरायकी मुख्यतासे जान लेना चाहिए । इतनी विशेषता है कि पाँच ज्ञानावरण, दो वेदनीय, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी सम्यग्दृष्टि भी है और मिथ्यादृष्टि भी है। छह दर्शनावरण, बारह कषाय और सात नोकषायों की उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर सम्यग्दृष्टि जीव तत्प्रायोग्य जघन्य योगस्थान से उत्कृष्ट योगस्थानको प्राप्त हुआ, वह उनकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है । इसी प्रकार सब प्रकृतियोंकी अपेक्षा जानना चाहिए। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवों में मनोयोगी जीवोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें जो अनन्तर समयमें शरीरपर्याप्तिको ग्रहण करेगा, ऐसा और कहना चाहिए ।
२४७. कार्मणकाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, स्त्यानगृद्धित्रिक, दो वेदनीय, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो तत्प्रायोग्य जघन्य योगस्थान से उत्कृष्ट योगस्थानको प्राप्त हुआ, वह उनकी
१. आ० प्रतौ 'देवरादिभंगो' इति पाठः । २. ता०आ० प्रत्योः 'उक्क० वढी । ......दोवेदणी० इति पाठः । ३. ताप्रतौ 'अनंता । इत्थि०' इति पाठः ।
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