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________________ पदणिक्खेवे सामित्तं २१३ २४५. ओरालियमि० पंचणा०-थीणगि०३-दोवेदणी०-मिच्छ०--अणंताणुवं०४णस०-णीचा०-पंचंत० उक० वड्डी कस्स० ? जो सत्तविध तप्पाओग्गजहण्णगादो जोगट्ठाणादो उक्कस्सजोगट्ठाणं गदो से काले सरीरपजत्ती गाहिदि त्ति तस्स उक्क० वड्डी । उक्क० हाणी कस्स० १ यो सत्तविधबंधगो उक्क० जोगी मदो सुहमणिगोदअपजत्तगेसु उववण्णो तप्पाऑग्गजह० पडिदो तस्स उक. हाणी । उक० अवट्ठाणं कस्स० १ यो सत्तविधवंधगो उक्क० जोगी पडिभग्गो अट्ठविधबंधगो जादो तप्पाओग्गजह० जोगट्ठाणे पडिदो तस्सेव से काले उक्कस्सयं अवट्ठाणं । छदंस०-बारसक०-सत्तणोक० उक० वड्डी कस्स० ? यो सम्मादिट्ठी तप्पाऑग्गजहण्णगादों जोगट्ठाणादो [ उकस्सयं जोगट्ठाणं गदो] तस्स उक्क० वड्डी । उक० हाणी अवट्ठाणं णाणा०भंगो। आयु० दो वि ओघं । णवरि अण्णदरस्स पंचिंदिय० सण्णि त्ति भणिदव्वं । णामाणं वड्डी णाणावभंगो। हाणी अवट्ठाणं च अप्पप्पणो ओघं । णवरि देवगदि०४ उक्क० वड्डी कस्स० ? अण्णदरस्स सम्मादि० तप्पाओग्गजहण्णगादो जोगहाणादो उक्कस्सजोगट्ठाण गदो से काले सरीरपजत्ति जाहिदि ति तस्स० उक्क० वड्डी। समचदु०समयमें होती है और दूसरे समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। शेष प्रकृतियोंके स्वस्थानमें तीनों ही कहने चाहिए । इसी प्रकार औदारिककाययोगी जीवोंमें जानना चाहिए । काययोगी जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। २४५. औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, स्त्यानगृद्धित्रिक, दो वेदनीय, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, नपुंसकवेद, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? सात प्रकारके कर्मों का बन्ध करनेवाला जो जीव तत्प्रायोग्य जघन्य योगस्थानसे उत्कृष्ट योगस्थानको प्राप्त होकर अनन्तर समयमें शरीरपर्याप्तिको प्राप्त करेगा,वह उनकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है। उनकी उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है? सात प्रकारके कर्मों का बन्ध करनेवाला उत्कृष्ट योगसे युक्त जो जीव मरा और सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न होकर तत्प्रायोग्य जघन्य योगस्थानको प्राप्त हुआ,वह उनकी उत्कृष्ट हानिका स्वामी है । उनके उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी कौन है ? सात प्रकारके कर्मो का बन्ध करनेवाला उत्कृष्ट योगसे युक्त जो जीव प्रतिभन्न होकर आठ प्रकारके कर्मो का बन्ध करने लगा और तत्प्रायोग्य जघन्य योगस्थानमें गिरा,वही अनन्तर समयमें उनके उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है। छह दर्शनावरण, बारह कषाय और सात नोकषायोंकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो सम्यग्दृष्टि तत्प्रायोग्य जघन्य योगस्थानसे उत्कृष्ट योगस्थानको प्राप्त हुआ,वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है। तथा इनकी उत्कृष्ट हानि और अवस्थानका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। दोनों आयुओंका भङ्ग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि अन्यतर पञ्चेन्द्रिय संज्ञीके कहना चाहिए। नामकर्मकी प्रकृतियोंकी वृद्धिका भङ्ग रणके समान है। तथा हानि और अवस्थानका भङ्ग अपने-अपने ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि देवगतिचतुष्ककी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर सम्यग्दृष्टि सत्प्रायोग्य जघन्य योगस्थानसे उत्कृष्ट योगस्थानको प्राप्त हो,अनन्तर समयमें शरीरपर्याप्तिको पूर्ण करेगा,वह उनकी वृद्धिका स्वामी है। समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर १. आ०प्रतौ 'सम्मादिष्टि त्ति० तप्पाओग्गजह ण्णगादो' इति पाठः । २. ता प्रतौ 'जोगहाणादो जोगडाणं. (?) उक्क० जोगहाणं' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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