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________________ २१२ महाबंधे पदेसबंधाहियारे मिच्छ०-अणंताणु०४--असाद०-] इत्थि०-णवंस०-णीचा० उक्क० वड़ी कस्स० ? यो अट्ठविध० तप्पाऑग्गजह जोगट्ठाणादो उक्कस्सजोगट्ठाणं गदो सत्तविधबंधगो जादो तस्स उक्क० वड्डी । उक्क० हाणी कस्स० ? यो सत्तविधवंधगो उक्क०जोगी पडिभग्गो तप्पाऑग्गजहण्णगे जोगहाणे पडिदो अढविधबंधगो जादो तस्स उक्क. हाणी। तस्सेव से काले उक्क० अवठ्ठाणं । णिद्दा-पयला०-छण्णोक० उक० वड्डी कस्स० ? सम्मादि० अट्ठविध तप्पाङग्गजह जोगट्ठाणादो उक्क० जोगट्ठाणं गदो सत्तविधबंधगो जादो तस्स उक्क० वड्डी । उक० हाणी कस्स० ? यो सत्तविधबंधगो उक्क०जोगी पडिभग्गो अट्ठविधबंधगो जादो तस्स उक्क० हाणी। तस्सेव से काले उक्क० अवट्ठाणं । अपञ्च-' क्खाण०४ असंजदसम्मादिहिस्स चदुगदियस्स सत्थाणे वड्डी हाणी अवट्ठाणं च कादव्वं । पञ्चक्खाण०४ संजदासंजदस्स च दुगदियस्स तिणि वि सत्थाणेण । चदु संजलणं पुरिस० वड्डी अवट्ठाणं ओघभंगो। हाणि-अवट्ठाणेसु पढमसमए हाणी विदियसमए अवट्ठाणं णादव्वं । चदुण्णं आउगाणं ओघं । णामाणं सव्वाणं वड्डी हाणी अवठ्ठाणं ओघभंगो । णवरि हाणी अप्पप्पणो अवट्ठाणेसु पढमसमए उक्कस्सिया हाणी विदियसमए उक्कस्सयमवट्ठाणं । सेसाणं सत्थाणे तिण्णि वि कादव्वाणि । एवं ओरालियकायजोगि०कायजोगी० ओघं। उनके उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपंसकवेद और नीचगोत्रकी उत्कष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है? आठ प्रकारके कर्मो का बन्ध करनेवाला जो जीव तत्प्रायोग्य जघन्य योगस्थानसे उत्कृष्ट योगस्थानको प्राप्त होकर सात प्रकारके कर्मो का बन्ध करने लगा, वह उनकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है। उनकी उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? सात प्रकारके कर्मो का बन्ध करनेवाला उत्कृष्ट योगसे युक्त जो जीव प्रतिभन्न होकर तत्प्रायोग्य जघन्य योगस्थानमें गिरा और आठ प्रकारके कर्मो का बन्ध करने लगा, वह उनकी उत्कृष्ट हानिका स्वामी है । तथा वही अनन्तर समयमें उनके उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है। निद्रा, प्रचला और छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? आठ प्रकारके कर्मो का बन्ध करनेवाला जो सम्यग्दृष्टि जीव तत्प्रायोग्य जघन्य योगस्थानसे उत्कृष्ट योगस्थानको प्राप्त हुआ और सात प्रकारके कर्मोका बन्ध करने लगा और वह उनकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है। उनकी उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? सात प्रकारके कर्मोका बन्ध करनेवाला उत्कृष्ट योगसे युक्त जो जीव प्रतिभग्न होकर आठ प्रकारके कर्मोका बन्ध करने लगा,वह उनकी उत्कृष्ट हानिका स्वामी है । तथा वही अनन्तर समयमें उनके उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कके चार गतिके असंयतसम्यग्दृष्टिके स्वस्थानमें वृद्धि, हानि और अवस्थान करने चाहिए। प्रत्याख्यानावरण चतुष्कके तीनों ही पद दो गतिके संयतासंयत जीवके स्वस्थानमें कहने चाहिए। चार संज्वलन और पुरुषवेदकी वृद्धि और अवस्थानका भङ्ग ओघके समान है। अपने अवस्थानमें प्रथम समयमें उत्कृष्ट हानि होगी और द्वितीय समयमें अवस्थान होगा। चार आयुओंका भङ्ग ओघके समान है। नामकर्मकी सब प्रकृतियोंकी वृद्धि, हानि और अवस्थानका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि हानि और अपने-अपने अवस्थान इनमेंसे उत्कृष्ट हानि प्रथम १. आ०प्रतौ 'ओरालियकाजोगि ओघं' इति पाठः ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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