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________________ पदणिक्खेवे सामित्तं सत्थाणे कादव्वं । सेसाणं वड्डी अवट्ठाणं बादरस्स कादव्वं । हाणी मदो सुहमणिगोदेसु उववण्णो । आदाव० बादरपुढविपजत्त० सत्थाणे कादव्वं । एवं पंचकायाणं । विगलिंदियाणं पंचिंदियतिरिक्खअपजत्तभंगो। णवरि पंचणा०-णवदंसणा० - दोवेदणी०मिच्छ०--सोलसक०-सत्तणोक-विगलिंदियजादि-ओरालि.अंगो०-असंप०--णीचा०पंचंत० उक्क० वड्डी अवहाणं सत्थाणे कादव्वं । हाणी मदो अपजत्तगेसु उववण्णोः । सेसाणं सत्थाणे तिण्णि वि कादव्वं । २४३. पंचिंदिएसु सव्वपगदीणं ओघं। णवरि तिरिक्खगदि-चदुजादीणं ओरालि०तेजा-क०-डंडसं०-वण्ण०४-तिरिक्खाणु०--अगु०-उप०-आदाउजो०-थावर-बादर-सुहुमपज्जत्त-अपजत्त-पत्तेय-साधार०-थिराथिर-सुभासुभ-दूभग-अणार्दै०-अजस०-णिमिणं एदाणं बड्डी अवट्ठाणं ओघं । हाणी अवट्ठाणम्हि कादव्वं । सेसाणं ओथं । एवं तस०२। २४४. पंचमण-पंचवचि० पंचणा०-चदुदंस०-सादा०-जसगि०-उच्चा०-पंचंत० उक्क० वड्डी कस्स० ? यो सत्तविधबंधगो उक्क० जोगी तप्पाऑग्गजहण्णगादो जोगट्ठाणादो उकस्सं जोगहाणं गदो छविधबंधगो जादो तस्स उक्क० वड्डी । उक्क० हाणी कस्स० ? जो छविधबंधगो उक्कस्सजोगी पडिभग्गो तप्पाओग्गजहण्णगे जोगठाणे पडिदो सत्तविध० तस्स उक्क० हाणी । तस्सेव से काले उकस्सयमवट्ठाणं। थीणगि०३अवस्थान बादर जीवके करने चाहिए । तथा जो मरकर सूक्ष्म निगोद जीवोंमें उत्पन्न हुआ उसके हानि करनी चहिए । आतपकी उत्कृष्ट वृद्धि आदि बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तके स्वस्थानमें करनी चाहिए । इसी प्रकार पाँच स्थावरकायिक जीवोंमें जानना चाहिए । विकलेन्द्रियोंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, दो वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, विकलेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायकी उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान स्वस्थानमें करने चाहिए । तथा जो मरकर अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ, वह इनकी उत्कृष्ट हानिका स्वामी है। शेष प्रकृतियोंके तीनों ही स्वस्थानमें कहने चाहिए। २४३. पञ्चेन्द्रियोंमें सब प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि तिर्यश्चगति, चार जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, आतप, उद्योत, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुभंग, अनादेय, अयशःकीर्ति और निर्माण इनकी वृद्धि और अवस्थानका भङ्ग ओघके समान है। हानि अवस्थानके समय करनी : शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार त्रसद्विकमें जानना चाहिए। २४४. पाँच मनोयोगी और पाँच वचनयोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, साताघेदनीय, यश-कीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? सात प्रकारके कर्मों का बन्ध करनेवाला उत्कृष्ट योगसे युक्त जो जीव तत्प्रायोग्य जघन्य योगस्थानसे उत्कृष्ट योगस्थानको प्राप्त होकर छह प्रकारके कर्मो का बन्ध करने लगा, वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है। उनकी उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? छह प्रकारके कर्मो का बन्ध करनेवाला उत्कृष्ट योगसे युक्त जो जीव प्रतिभग्न होकर तत्प्रायोग्य जघन्य योगस्थानमें गिरा और सात प्रकारके कर्मो का बन्ध करने लगा,वह उनकी उत्कृष्ट हानिका स्वामी है। तथा वही जीव अनन्तर समयमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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