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महावे पदेसबंधाहियारे
पच्चक्खाण०४ संजदासंजदस्स । एवं संजलणचत्तारि' चदुआउ-चदुर्गादि चदुजादि० एदाणि देवगदिभंगो। पंचिंदियजादि चदुसंठा० ओरा० अंगो० - वस्संघ ० उक० वड्डि-हाणिअवहाणा णि णाणावरण भंगो। णवरि हाणी असण्णिपंचिंदियअपजत्तगेसु उववण्णो । चदुसंठा० - चदुसंघ० असण्णिपंचिंदियपजसु उववण्णो । २४०. पंचिंटियतिरिक्खअपजत्त ० पंचणा० - णवदंसणा ० - दोवेद ०-मिच्छ०सोलसक० - स ० छ०० क० पंचिंदि० ओरालि० अंगो० - असंप० उक्क ० बड्डी हाणी अट्ठाणं तिरिक्खगदिभंगो । णवरि हाणी असण्णिपंचिदिएसु उववण्णो । सेसाणं सत्थाणे वड्डी हाणी अडाणं कादव्वं । एवं सव्वअपञ्जत्तगाणं । णवरि अप्पप्पणो अपजत्तगेसु aaण्णो ।
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२४१. मणुस ०३ तिरिक्खभंगो । णवरि सम्मादिट्ठि उवसम - खवगपगदीणं डी अडाणं मूलोघं । हाणी अवद्वाणम्हि कादव्वं ।
२४२. एइंदिए दोआऊणि मणुसगदि चदुजादि - पंचसंठा०-ओरालि० अंगो०छस्संघ० - मसाणु ० दोविहा० -तस सुभग- दोसर - आदें० उच्चा० वड्डी हाणी अवट्ठाणं च
सब पदों का स्वामी असंयतसम्यग्दृष्टि और प्रत्याख्यानावरण चतुष्कके सब पढ़ोंका स्वामी संयतासंयत जीव है। इसी प्रकार चार संज्वलनके स्वामित्वके विषय में जानना चाहिए। चार आयु, चार गति और चार जाति इनका भङ्ग देवोंके समान है । पञ्चेन्द्रियजाति, चार संस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग और छह संहननकी उत्कृष्ट हानि, वृद्धि और अवस्थानका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । इतनी विशेषता है कि जो असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्तकों में उत्पन्न हुआ, वह इनकी हानिका स्वामी है । तथा असंज्ञी पश्चेन्द्रिय पर्याप्तकों में उत्पन्न हुआ जीव चार संस्थान और चार संहननकी उत्कृष्ट हानिका स्वामी है ।
२४०. पचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, दो वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, छह नोकपाय, पञ्च ेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग और असम्प्राप्तासृपाटिकासंहननकी उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थानका भङ्ग तिर्यवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि जो असंज्ञी पञ्चचेद्रियों में उत्पन्न होता है, वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है । शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थान स्वस्थानमें करना चाहिए। इसी प्रकार सब अपर्याप्त को जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपने-अपने अपर्याप्तकों में उत्पन्न हुआ जीव स्वामी है ।
२४१. मनुष्यत्रिक में तिर्यञ्चों के समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि सम्यग्दृष्टिसम्बन्धी तथा उपशम और क्षपक प्रकृतियोंकी वृद्धि और हानिका भङ्ग मूलोघके समान है। हानि अवस्थानमें करनी चाहिए ।
२४२. एकेन्द्रियोंमें दो आयु, मनुष्यगति, चार जाति, पाँच संस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, दो स्वर, आदेय और उच्चगोत्रकी वृद्धि, हानि और अवस्थान स्वस्थानमें करने चाहिए। शेष प्रकृतियोंके वृद्धि और
१. ता० प्रतौ 'सजदासंजदस्स एवं संजलणचत्तारि' इति पाठः । २ आ० प्रती 'तिरिक्खिगदिभंगो' इति पाठः ।
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