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________________ महाबंधे पदेसबंधाहियारे हारग त्ति णेदव्यं । णवरि वेउवि०मि०-आहारमि०-कम्मइ०-अणाहार० सव्यपगदीणं अस्थि उक्क० वड्डी । ओरालि मि० देवगदिपंचग० अत्थि उक्क० वड्डी । ___ २२५ जह० पगदं। दुवि०-ओघे० आदे। ओघे० सव्वपगदीणं अत्थि जहण्णिगा वड्डी जहण्णिगा हाणी जह० अवट्ठाणं । एवं याव अणाहारगति णेदव्वं । णवरि वेउव्वियमिस्स-आहारमि०-कम्मइ०-अणाहार० सव्वपगदीणं अत्थि जह० बड्डी । ओरालियमि० देवगदिपंच० अत्थि जह० वड्डी। एवं समुकित्तणा समत्ता । सामित्त २२६. सामित्तं दुविधं-जह० उक्क० च । उक्क० पगदं । दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० पंचणा०-चदुदंस०-सादा जस०-उच्चा०-पंचंत० उकस्सिया वड्डी कस्स० ? जो सत्तविधबंधगो तप्पाओग्गजहण्णगादो जोगट्ठाणादो उक्कस्सयं जोगट्ठाणं गदो तदो छविधबंधगो जादो तस्स उक्क० वड्डी । उक्क० हाणी कस्स ? जो छविधबंधगो उकस्सजोगी मदो देवो जादो तप्पाओग्गजहण्णए जोगट्ठाणे पदिदो तस्स उक्क० हाणी । इतनी विशेषता है कि वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि है। औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें देवगतिपञ्चककी उत्कृष्ट वृद्धि है। २२५. जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए । इतनी विशेषता है कि वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य वृद्धि है । औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें देवगतिपञ्चककी जघन्य वृद्धि है। विशेषार्थ-यहाँ वैक्रियिकमिश्रकाययोगी आदि चार कार्मणाओंमें उत्तरोत्तर योगको वृद्धि होनेसे मात्र वृद्धि सम्भव है। तथा यही बात औदारिकमिश्रकाययोगी जीवाम देवगतिपञ्चकके विषयमें जानना चाहिए । शेष कथन सुगम है। इसप्रकार समुत्कीर्तना समाप्त हुई। स्वामित्व २२६. स्वामित्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है.--ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? सात प्रकारके कर्मोका बन्ध करनेवाला जो जीव तत्प्रायोग्य जघन्य योगस्थानसे उत्कृष्ट योगस्थानको प्राप्त हो अनन्तर छह प्रकारके कर्मोका बन्ध करने लगा वह उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि का स्वामी है। उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? छह प्रकारके कर्मोंका बन्ध करनेवाला जो उत्कृष्ट योगवाला जीव मरा और देव होकर तत्प्रायोग्य जघन्य योगस्थानमें पतित हुआ वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है। १. ताप्रतौ 'एवं अणाहारग' इति पाठः। २. ताप्रती 'एवं समुक्कित्तणा समत्ता।' इति पाठो नास्ति । . ३. ता०प्रतौ 'कस्स? सत्तविधबंधगो' इति पाठः । ४. ताप्रती -जहण्णयं (ए) जोगहाणे' इति पाटः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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