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________________ पदणिक्खेवे समुचित्तणा १६७ २२२. सुक्काए पंचणाणा०-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसकसा०-भय-दु०-दोगदिचदुसरीर-दोअंगो०-वण्ण०४-दोआणु०-अगु०४-तस०४-णिमि०-तित्थ०-पंचंत० सव्वत्थोवा अवत्त० । अवढि० असं०गु० । अप्प० असं०गु० । भुज० विसे० । सेसाणं सादादीणं एवं चेव । णवरि सव्वत्थोवा अवढि०। २२३. सासणे धुवियाणं णिरयभंगो । देवगदि०४-दोसरीर० तेउभंगो । सेसाणं ओघं । सम्मामि० धुविगाणं सासणभंगो । सादादीणं ओघ । सण्णी० मणजोगिभंगो । अणाहार० कम्मइगभंगो। __ एवं अप्पाबहुगं समत्तं । एवं भुजगारबंधो समत्तो। पदणिक्खेवो समुक्कित्तणा २२४. एत्तो पदणिक्खेवे ति तत्थ इमाणि तिण्णि अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति । तं जहा-समुक्कित्तणा सामित्तं अप्पाबहुगे ति । समुक्कित्तणाए दुवि०जह० उक० च। उक० पगर्द। दुवि०-ओषे० आदे० । ओघे० सव्वपगदीणं अत्थि उक्कस्सिया वड्डी उक्कस्सिया हाणी उकस्सयमवट्ठाणं । एवं याव अणा ___ २२२. शुक्ललेश्यामें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, दो गति, चार शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तरायके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। शेष सातावेदनीय आदिका भङ्ग इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अवस्थितपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। २२३. सासादनसम्यक्त्वमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। देवगतिचतुष्क और दो शरीरोंका भङ्ग पीतलेश्याके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। सम्यग्मिथ्यात्वमें ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग सासादनसम्यक्त्वके समान है। सातावेदनीय आदि प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। संज्ञी जीवोंमें मनोयोगी जीवोंके समान भङ्ग है । अनाहारक जीवोंमें कार्मणकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है। इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। इस प्रकार भुगजारबन्ध समाप्त हुआ। पदनिक्षेप समुत्कीर्तना २२४. आगे पदनिक्षेपका प्रकरण है। वहाँ ये तीन अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं । यथासमुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । समुत्कीर्तना दो प्रकारको है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए। १. ता०प्रतौ 'उ० । [उ.] पगदं' इति पाठः । २. ता०प्रतौ 'उक्कस्सिया (य) मवद्याणं' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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