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________________ महाबंधे पदेसबंधाहियारे अवढि० असं०गु० । अप्प० असं०गु०। भुज. विसे० । सादासाद०-चदुणोक०दोआउ०-थिरादितिण्णियुग० आहारदुर्ग ओघभंगो। एवं ओधिदंस०-सम्मा०-खइग०वेदग०-उवसम० । णवरि मणुसाउ० णिरयभंगो। खइगे दोआउ० मणुसिभंगो । मणपज्जवे आमिणिभंगो। णवरि संखेंजं कादव्वं । एवं संजद०-सामाइ०-छेदो०परिहार०-सुहुमसं०। संजदासंजदा० ओधिभंगो। चक्खु० तसपजत्तभंगो । २२१. तेउए पंचणा०-छदसणा०-चदुसंज०-भय-दु०-तेजा०-क'०-वण्ण०४-अगु०४बादर-पज्जत्त-पत्ते-णिमि०-गंचंत० सव्वत्थोवा अवढि० । अप्प० असं०गु० । भुज० विसे० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-बारसक०-देवगदि०४-ओरालि०-तित्थ० सव्वत्थोवा अवत्त० । अवढि० असंगु० । अप्प० असंगु । भुज० विसे० । सेसाणं सव्वत्थोवा अवढि० । अवत्त० असंगु० । अप्प० असंगु । भुज० विसे । एवं पम्माए वि । णवरि देवगदि०४-ओरा०-ओरा०अंगो-तित्थ० अट्ठक०भंगो। असंख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । उनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय, दो आयु, स्थिर आदि तीन युगल और आहारकद्विकका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि वेदगसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि मनुष्यायुका भङ्ग नारकियोंके समान है। तथा क्षायिक सम्क्त्वमें दो आयुआंका भङ्ग मनुष्यिनियोंके समान है । मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें आभिनिबोधिकज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि संख्यात कहना चाहिए। इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें जानना चाहिए। संयतासंयत जीवोंमें अवधिज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है। चक्षुदर्शनी जीवोंमें जसपयोप्तकाके समान भङ्ग है। २२१. पीतलेश्यामें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण और पाँच अन्तरायके अवस्थितपढ़के बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यात गुणे हैं। उनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, बारह कषाय, देवगतिचतुष्क, औदारिकशरीर और तीर्थङ्कर प्रकृतिके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। शेष प्रकृतियोंके अवस्थित पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे अवक्तव्यपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। इसी प्रकार पद्मलेश्यामें भी जान लेना चाहिए। इतनी विशेषता है कि देवगतिचतुष्क, औदारिकशरीर; औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग और तीर्थङ्कर प्रकृतिका आठ कषायोंके समान भङ्ग है। १. आ०प्रतौ चदुसंज० तेजाक०' इति पाठः। २. ता प्रतौ 'अवत्त. असं०गु० भुज० विसे' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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