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________________ भुजगारबंधे अप्पाबहुआणुगमो २६५ विसे । आहारदुगं तित्थ० मणुसिभंगो। एवं पुरिस० । णवरि तित्थ० ओघभंगो । णqसगेसु धुविगाणं अट्ठारसपगदीगं सव्वत्थोवा अवट्ठि० । अप्पद० असं०गु० । भुज० विसे० । सेसाणं ओघं ।। २१८, एवं कोधे० अट्ठारस० माणे सत्तारस० मायाए सोलस० । अवगदवे० सव्यपगदीणं सव्वत्थोवा अवढि० । अवत्त० संखेंज्जगु० । अप्प० संखेंजगु० । भुज० विसे०। २१६. मदि-सुद० धुविगाणं सव्वत्थोवा अवढि०। अप्प० असंखेंजगुः । भुज० विसे० । सेसाणं ओघं । एवं असंजद-तिण्णिले०-अभवसि०-मिच्छा०-असण्णि त्ति । विभंगे धुबियाणं मदिभंगो । सेसाणं मणजोगिभंगो २२०. आभिणि-सुद-ओधिणा० पंचणा०-छदंस०-बारसक०-पुरिस०-भय-दु०दोगदि०-[पंचिंदि०-] चदुसरीर-समचदु०-दोअंगो०-वजरि०-वण्ण०४-दोआणु०-अगु०४पसत्थ०-तस४-सुभग-सुस्सर-आदें-णिमि०-तित्थ०-उच्चा०-पंचंत० सव्वत्थोवा अवत्त । उनसे अवक्तव्यपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । उनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग मनुष्यिनियोंके समान है। इसी प्रकार पुरुषवेदी जीवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि तीर्थङ्करप्रकृतिका भङ्ग ओषके समान है। नपुंसकवेदी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली अठारह प्रकृतियोंके अवस्थित पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । उनसे भुजगार पदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। २१८. इसी प्रकार क्रोधकषायमें अठारह प्रकृतियोंके, मानकषायमें सत्रह प्रकृतियोंके और मायाकपायमें सोलह प्रकृतियोंके बन्धक जीवोंका भङ्ग नपुंसकवेदी जीवोंके समान जानना चाहिए । अपगतवेदी जीवोंमें सब प्रकृतियोंके अवस्थितपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवक्तव्यपदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । उनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। २१६. मत्यनानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अवस्थितपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार असंयत, तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंमें जानना चाहिए । विभङ्गज्ञानी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है। शेष प्रकृतियों का भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। २२०. आभिनिबोधिकज्ञानी, अतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, दो गति, पञ्चेन्द्रियजाति, चार शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, दो आनुपुर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव १. आ०प्रतौ 'अवत्त० अवहि० असंखेजगु०' इति पाठः । २. ता०प्रतौ 'सेसाणं मोह० । एवं असंजदा' आप्रतौ 'सेसाणं मोहः । एवं संजदा' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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