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________________ १८५ भुजगारबंधे कालाणुगमो २०१. देवेसु णिरयभंगो। एवं सव्वदेवाणं । णवरि सम्वट्ठ मणुसि भंगो । धुविगाणं अवत्त० गत्थि । २०२. एइंदिय-पंचकायाणं मणुसाउ० ओघभंगो। सेसाणं सव्वद्धा। कायजोगिओरालि०-णवंस०-कोधादि०४-अचक्खु०-भवसि०-आहारग ति ओघभंगो। ओरालियमि०-मदि-सुद०-असंज-तिण्णिले०-अब्भव०-मिच्छा०-असण्णि त्ति तिरिक्खोघं । णवरि ओरालियमि० देवगदिपंच० भुज० जह० उक० अंतो० । भी सम्भव है, इसलिए इनमें इनके शेष पदवालोंका काल ओघके समान कहा है । तथा वैक्रियिकषट्क, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करनेवाले मनुष्य संख्यात ही होते हैं, इसलिए इनमें इन प्रकृतियोंका भङ्ग ओघसे आहारकशरीरके समान जाननेकी सूचना की है। इसी प्रकार यहाँ नरकायु और देवायुका बन्ध करनेवाले मनुष्य भी संख्यात ही होते हैं, इसलिए इनका भङ्ग नारकियोंमें मनुष्यायुके समान जाननेकी सूचना की है। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनी ये तो संख्यात होते ही हैं, इसलिए इनमें सब प्रकृतियोंका भङ्ग ओघसे आहारकशरीरके समान और चार आयुओंका भङ्ग नारकियोंमें मनुष्यायुके समान जाननेकी सूचना की है। मनुष्य अपर्याप्त सान्तर मार्गणा है, इसलिए इसमें इस दृष्टिको ध्यानमें रखकर ध्रुवबन्धवाली और इतर प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर पदवाले जीवोंका काल कहा है। शेष कथन सुगम है। २०१. देवोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है । इसी प्रकार सब देवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि सर्वार्थसिद्धिमें मनुष्यनियोंके समान भङ्ग है। किन्तु यहाँ ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका अवक्तव्यपद नहीं है। विशेषार्थ-देवों और उनके अवान्तर भेदोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है,यह स्पष्ट ही है। मात्र सर्वार्थसिद्धिके देव संख्यात होते हैं, इसलिए उनमें मनुष्यनियोंके समान भङ्ग बन जानेसे उनके समान जाननेकी सूचना की है। किन्तु मनुष्यिनियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका अवक्तव्य पद होता है,पर यहाँ नहीं होता, इसलिए उसका निषेध किया है। २०२. एकेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायिक जीवोंमें मनुष्यायुका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है । काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदवाले, क्रोधादि चार कषायवाले, अचतुदर्शनवाले, भव्य और आहारक जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है । औदारिकमिश्रकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञो जीवोंमें सामान्य तिर्यश्चोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें देवगतिपञ्चकके भुजगार पदके बन्धक जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-एकेन्द्रिय राशि तो अनन्त है। पाँच स्थावरकायिक जीवोंमें वनस्पतिकायिक भी अनन्त हैं । शेष चार कायवाले असंख्यात हैं, फिर भी बहुत हैं, इसलिए इनमें सब प्रकृतियोंके यथासम्भव सब पदवाले जीव सर्वदा पाये जाते हैं, इसलिए उनके सब पदवालोंका सर्वदा काल कहा है । मात्र मनुष्यायुका बन्ध करनेवाले थोड़े होते हैं, इसलिए इसका भङ्ग ओघके समान जाननेकी सूचना की है । काययोगी आदि मार्गणाओंमें ओघप्ररूपणा घटित हो जानेसे उनमें उसके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र जहाँ जो थोड़ी-बहुत विशेषता हो उसे जान १. ता०प्रतौ 'सव्वद्या (द्धा)' इति पाठः। २. आ०प्रतौ 'जह• एग०, उक० अंतो.' इति पाठः । २४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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