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________________ १८४ महाबंधे पदेसबंधाहियारे सबविगलिंदि०-पंचिंदिय-तसअपजत्तगाणं पंचकायाणं बादरपजत्तगाणं च । २००. मणुयेसु धुबियाणं अवढि जह० एग०, उक्क० आवलि. असंखें । सेसपदा ओघं । वेउब्वियछ० आहारदुगं तित्थ० आहारसरीरभंगो। सेसाणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो । णवरि दोआउ० णिरय-मणुसाउभंगो। पज्जत्त-मणुसिणीसु सव्वपगदीणं आहारसरीरभंगो । चदुआउ० णिरय-मणुसाउभंगो। मणुसअपजत्त० धुवियाणं भुज०-अप्प० जह० एग०, उक्क० पलिदो० असंखेंजदिभा० । अवढि० जह० एग०, उक्क० आवलि. असंखें । एवं सव्वपगदीणं । णवरि अवत्त० अवट्ठिदभंगो । दोआउ० पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो। है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसीप्रकार सब विकलेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रियअपर्याप्त, जसअपर्याप्त और पाँच स्थावरकायिकोंके बादर पर्याप्तकोंमें जानना चाहिए । विशेषार्थ-पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त जीव असंख्यात होते हैं, इसलिए इनमें दोनों आयुओंको छोड़कर शेष सब प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतरपदवाले जीवोंका काल सर्वदा बन जाता है । अब रहा इन प्रकृतियोंके शेष पदोंके कालका विचार और आयुकर्मके चारों पदोंके कालका विचार सो इस सम्बन्धमें उक्त पदवाले जीवोंकी असंख्यात संख्याके रहते हुए इस सम्बन्धमें यह नियम जानना चाहिए कि जिन पदोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है, उनका यहाँ जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है। तथा जिन पदोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल सात-आठ समय, सात समय या एक समय है उनका यहाँ जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है। यहाँ इसी नियमको ध्यानमें रखकर उक्त काल कहा है। यहाँ अन्य जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं, उनमें यह प्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है, इसलिए उनमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान जाननेकी सूचना की है। २००. मनुष्योंमें ध्रवन्धवाली प्रकृतियोंके अवस्थितपदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। शेष पदोंके बन्धक जीवोंका भङ्ग ओघके समान है । वैक्रियिकषटक, आहारद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ओघसे आहारकशरीरके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चोंके समान है। इतनी विशेषता है कि दो आयुओंका भङ्ग नारकियोंमें मनुष्यायुके समान है। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें सब प्रकृतियोंका भङ्ग आहारकशरीरके समान है। चार आयओंका भङ्ग ना मनुष्यायुके समान है । मनुष्य अपर्याप्तकोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अवस्थित पदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार सब प्रकृतियोंके विषयमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य पदका भङ्ग अवस्थित पदके समान है। दो आयुओंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है। विशेषार्थ-मनुष्य असंख्यात होते हैं। इनमें अन्य सब प्रकृतियोंके पदोंका काल पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चोंके समान बन जाता है । मात्र इनमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका अवक्तव्यपद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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