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________________ भुजगारबंधे फोसणाणुगमो १८३ तिरिक्ख०३ धुवियाणं भुज-अप्प० सव्वद्धा । अवढि जह० एग०- उक्क० आवलि. असंखें । चदुण्णं आउगाणं भुज०-अप्प० जह० एग०, उक्क० पलिदो० असंखें । अवट्टि०-अवत्त० जह० एग०, उक्क० आवलि० असंखें। सेसाणं भुज०-अप्प० सव्वद्धा। अवढि०-अवत्त० जह० एग०, उक्क० आवलि. असंखें । १६६ पंचिंदि०तिरि०अपज. धुवियाणं भुज०-अप्प० सव्वद्धा। अवढि० जह० एग०, उक्क० आवलि० असंखें । दो आउ० भुज-अप्प० जह०एग०, उक्क० पलिदोवम० असंखें० । अवढि०-अवत्त० जहँ एग०, उक्क० आवलि० असंखें । सेसाणं भुज०-अप्प० सव्वद्धा । अवढि०-अवत्त-जह० एग०, उक्क. आवलि० असंखे । एवं और अल्पतर पदके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है । अवस्थितपदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। चार आयुओंके भुजगार और अल्पतरपदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवांका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। शेष प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतरपदके वन्धक जीवोंका काल सर्वदा है। अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। विशेषार्थ-तिर्यञ्चोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ ये हैं-पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, आठ कपाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तराय । सो इनके भुजगार आदि तीनों पद एकेन्द्रियादि सब जीवोंके सम्भव हैं, इसलिए इनके उक्त पदवाले जीवोंका काल सर्वदा कहा है। इनके सिवा यहाँ बँधनेवाली शेष जितनी प्रकृतियाँ हैं उनकी ओघप्ररूपणा यहाँ बन जाती है, इसलिए उसे ओघके समान जाननेकी सूचना की है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च त्रिक प्रत्येक असंख्यात होते हैं, इसलिए इनमें सब प्रकृतियों के भुजगार और अल्पतर पदवालोंका सब काल और जिनका अवस्थित पद है या जिनका अवस्थित और अवक्तव्य पद है, उनका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । मात्र चार आयुओं के भुजगार और अल्पतर पदवालोंका सर्वदा काल नहीं बन सकता, क्योंकि इनका त्रिभागमें अन्तर्मुहूर्त तक ही आयुबन्ध होता है, इसलिए इनके इन दो पदवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । शेष कथन सुगम है। १६. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तक जीवोंमें ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है । अवस्थितपढ़ के बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। दो आयुओंके भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थित और अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। शेष प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है । अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय १. ता०प्रतौ 'सव्वद्या [ द्धा ] सव्वहा। अवहि' इति पाठः। २ आ०प्रतौ 'एग आवलि.' इति पाठः । ३ ता०प्रतौ 'चदुगाणं' इति पाठः। ४ आप्रतौ 'अवष्टि जहः' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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