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________________ भुजगारबंधे फोसणाणुग़मो १७६ अवत्त० पंचचों । दोआउ०-मणुसग०-मणुसाणु०-उच्चा० सव्वपदा अट्ठचों । देवाउ० खेत्तभंगो । तिरिक्खग०-तिरिक्खाणुपु०-भग-अणादें तिण्णि पदा अट्ठ-बारह० देसू० । अवत्त [ अट्ठ ] एगा०चौँ । देवगदि०४ तिण्णि पदा पंचचों० देसू० । अवत्तव्व०' खेत्तभंगो। पदके बन्धक जोवोंने सनालीके कुछ कम पाँच बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आयु मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके सब पदोंके बन्धक जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । देवायुका भङ्ग क्षेत्रके समान है। तिर्यश्चगति, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, दुर्भग और अनादेयके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा इनके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम आठ और कुछ ग्यारह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवगतिचतुष्कके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम पाँच बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा इनके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। विशेषार्थ-सासादनसम्यग्दृष्टियोंका स्पर्शन कुछ कम आठ और कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण बतलाया है । यह दोनों प्रकारका स्पर्शन ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन और सातावेदनीय आदिके चार पदोंके बन्धक जीवोंके सम्भव होनेसे उक्तप्रमाण कहा है । स्त्रीवेद आदिके तीन पदोंका बन्ध देवोंके विहार आदिके समय तथा नारकियों और देवोंके तिर्यश्चों और मनुष्योंमें मारणान्तिक समुद्धातके समय भी सम्भव है, इसलिए इनके उक्त पदवाले जीवोंका स्पर्शन त्रसनालोके कुछ कम आठ और कुछ कम ग्यारह बटे चौदह भागप्रमाण कहा है । मात्र इनका अवक्तव्यपद मारणान्तिक समुद्धातके समय सम्भव नहीं है । तथा तिर्यञ्चों और मनुष्योंके देवोंमें उत्पन्न होनेपर उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्गका अवक्तव्यपद सम्भव है, इसलिए यहाँ स्त्रीवेद आदि सब प्रकृतियोंके अवक्तव्य पदवाले जीवोंका स्पर्शन सनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण और औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्गके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम पाँच बटे चौदह भागप्रमाण कहा है । देवोंके विहार आदिके समय भी दो आयु आदिके सब पद सम्भव हैं, अतः इनके चारों पदवाले जीवोंका स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण कहा है । देवायुका भङ्ग क्षेत्रके समान है,यह स्पष्ट ही है। देवोंके विहारादिके समय तथा नारकियों और देवोंके तिर्यञ्चों और मनुष्योंमें मारणान्तिक समुद्भात करते समय भी तिर्यश्चगति आदिके तीन पद सम्भव हैं, इसलिए इनके उक्त पदवाले जीवोंका स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण कहा है । तथा इनका अवक्तव्यपद देवोंमें विहारादिके समय और देवों व नारकियोंके तिर्यञ्चोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें भी सम्भव है, इसलिए इस पदवाले जीवोंका स्पर्शन सनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम ग्यारह बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। तिर्यश्चों और मनुष्योंके देवोंमें मारणान्तिक समुद्धात करते समय भी देवगति चतुष्कके तीन पदोंका बन्ध सम्भव है, अतः इनके उक्त पदवाले जीवोंका स्पर्शन असनालोके कुछ कम पाँच बटे चौदह भागप्रमाण कहा है । तथा इनका अवक्तव्यपद ऐसे समयमें नहीं होता, इसलिए इसका भङ्ग क्षेत्रके समान जाननेकी सूचना की है। १. ता०आप्रत्योः 'अवत्त ए• अंतो चौ०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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