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________________ १७८ महाबंधे पदेसबंधाहियारे १६३. सुकाए आणदभंगो'। अपचक्खाण०४-मणुसगदिपंच० सव्वपदा छच्चों। देवगदि०४ तिण्णि पदा छच्चों । अबत्त० खेत्तभंगो० । खविगाणं अवत्त० खेत्तभंगो। १६४, सासणे धुवियाणं तिण्णि पदा अट्ठ-बारह । सादादीणं तेरसण्णं सवपदा अट्ठ-बारह० । इत्थि०-पुरिस-पंचसंठा०-ओरालि०अंगो०-पंचसंघ०-दोविहा०-सुभगदोसर-आर्दै० तिण्णि पदा अट्ठ-ऍकारह० । अवत्त० अट्ठचों। णवरि ओरा०अंगो० १६३. शुक्ल लेश्यामें आनतकल्पके समान भङ्ग है । अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क और मनुष्यगति पश्चकके सब पदोंके बन्धक जीवाने त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवगतिचतुष्कके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इनके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवांका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । क्षपकप्रकृतियोंके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवांका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। विशेषार्थ-शुक्ललेश्यावाले जीवोंका स्पर्शन सनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण है । आनत कल्पके देवोंका भी उक्त प्रमाण स्पर्शन बन जाता है, अतः शुक्ललेश्यामें आनत कल्पके समान भङ्ग है,यह वचन कहा है । उसमें भी कुछ स्पष्ट करनेके लिए अलगसे निर्देश किया है । आरण कल्पसे लेकर ऊपरके देवोंमें उत्पादके समय भी अप्रत्याख्यानावरण चतुष्कके सब पढ़ और मनुष्यगति पञ्चकका अवक्तव्यपद तथा इन देवोंके विहारादिके समय मनुष्यगतिपश्चकके शेष तीन पद सम्भव हैं, इसलिए इन प्रकृतियोंके सब पदवाले जीवोंका सनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है। तिर्यञ्चों और मनुष्योंके ' देवोंमें मारणान्तिक समुद्धात करते समय भी देवगतिचतुष्कके तीन पद होते हैं, इसलिए इनके तीन पदवाले जीवोंका स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण कहा है । किन्तु ऐसे समयमें इनका अवक्तव्य पद नहीं होता, इसलिए इनके अवक्तव्यपदका भङ्ग क्षेत्रके समान कहा है । अब रहीं पाँच ज्ञानावरणादि शेष क्षपक प्रकृतियाँ सो इनका अवक्तव्यपद उपशमश्रेणिमें या तो उतरते समय या इनकी बन्धव्युच्छित्तिके बाद मरकर देव होनेके प्रथम समय प्राप्त होता है, इसलिए इनके अवक्तव्य पदवाले जीवोंका भङ्ग भी क्षेत्रके समान कहा है । तथा इनके शेष, तीन पदवाले जीवोंका स्पर्शन कितना है, इसका उत्तर 'आनत कल्पके समान है। इसमें ही हो जाता है । यहाँ ऐसी तीन प्रकृतियाँ और शेष रहती हैं, जिनके विषयमें अलगसे कुछ नहीं कहा है। वे है-देवायु और आहारकद्विक । सो देवायुका बन्ध तो स्वस्थानमें ही होता है और आहारकद्विकका बन्ध केवल अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरणवाले मनुष्य करते हैं, इसलिए इनके चारों पदवाले जीवोंका स्पर्शन यहाँ क्षेत्रके समान प्राप्त होता है। १६४. सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें ध्रुवबन्धवालो प्रकृतियोंके तीन पदवाले जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय आदि तेरह प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंने त्रसनालोके कुछ कम आठ और कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, पाँच संस्थान, औदारिक शरीर आङ्गोपाङ्ग, पाँच संहनन, दो विहायोगति, सुभग, दो स्वर और आदेयके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम ग्यारह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा इनके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इतनी विशेषता है कि औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्गके अवक्तव्य १. ता०प्रतौ 'सहस्सारभं [गो'आण] दभंगों' आ०प्रतौ 'सहस्सारभंगो । 'आणदभंगो' इति पाठः । २. आ०प्रतौ 'देवगदि० ४ छच्चो०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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