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________________ भुजगारबंधे फोसणाणुगमो १७७ विशेषार्थ-पीतलेश्यामें देवोंके विहारके समय सनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाग स्पर्शन पाया जाता है और ऊपर एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्भात करते समय वसनालीके कुछ कम नौ बटे. चौदह भागप्रमाग स्पर्शन पाया जाता है और ऐसे समयमें पाँच ज्ञानावरणादिके तीन पद सम्भव हैं, अतः इनके सब पदवाले जीवोंका उक्तप्रमाण स्पर्शन कहा है। स्त्यानगृद्धिदण्डक और सातावेदनीयदण्डकके स्पर्शनको जो सौधर्म कल्पके समान जाननेकी सूचना को है सो उसका यही अभिप्राय है कि रत्यानगृद्धिदण्डकके तीन पदवाले जीवोंका और सातावेदनीयदण्डकके चार पदवालोंका उक्त प्रकारसे ही स्पर्शन जानना चाहिए । तथा स्त्यानगृद्धिदण्डकका अवक्तव्यपद ऊपर एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्धातके समय नहीं होता, इसलिए इनके इस पदवाले जीवोंका स्पर्शन इसीका सौधर्म कल्पमें कहे गये स्पर्शनके समान सनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। स्त्यानगृद्धिदण्डककी प्रकृतियाँ ये हैं-स्त्यानगृद्धित्रिक, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, नपुंसकवेद, तियश्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, तियेश्वगत्यानुपूर्वी, स्थावर, दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्र । सातावेदनीयदण्डककी प्रकृतियाँ ये हैंसातावेदनीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, चार नोकषाय, उद्योत और स्थिर आदि तीन युगल । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क, प्रत्याख्यानावरणचतुष्क और औदारिकशरीरके तीन पद भी देवोंके विहारके समय और ऊपर एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घातके समय सम्भव हैं, इसलिए इनके इन पदवाले जीवोंका स्पर्शन भी त्रसनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण कहा है । मात्र अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क और औदारिकशरीरका अवक्तव्यपद देवोंमें ऐशान कल्प तकके देवोंके उपपादपदके समय ही सम्भव है, इसलिए इनके उक्त पदवाले जीवोंका स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम डेढ़ बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। प्रत्याख्यानावरणचतुष्कका अवक्तव्यपद भी यद्यपि उक्त देवोंमें सम्भव है,पर जो संयत मनुष्य मरकर इनमें उत्पन्न होते हैं उन्हींके यह होता है, इसलिए यहाँ इनके अवक्तव्यपदवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहाहै। तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान तथा देवायु और आहारकद्विकका भङ्ग क्षेत्रके समान है,यह स्पष्ट ही है । सौधर्म-ऐशान कल्प तकके देवोंमें मारणान्तिक समुद्धात करते समय भी देवगतिचतुष्कके तीन पद सम्भव हैं, इसलिए इनके उक्त पदवाले जीवोंका स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम डेढ़ बटे चौदह भागप्रमाण कहा है । किन्तु ऐसे समयमें इनका अवक्तव्यपद नहीं होता, इसलिए उसका भङ्ग क्षेत्रके समान कहा है। यहाँ शेष प्रकृतियाँ ये हैं-स्त्रीवेद, पुरुषवेद, दो आयु, मनुष्य गति, पञ्चेन्द्रियजाति, पाँच संस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, दो स्वर, आदेय और उच्चगोत्र । इनका ऊपर एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते समय बन्ध नहीं होता, अतः इनके चारों पदवाले जीवोंका स्पर्शन सौधर्म कल्पके समान त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। यहाँ मूलमें इसीप्रकार पद्मलेश्यामें भी जानना चाहिए, ऐसा कहनेका तात्पर्य यह है कि जिसप्रकार अलगअलग प्रकृतियोंके सम्भव पदवालों का स्पर्शन पीतलेश्यामें कहा है, उसीप्रकार पद्मलेश्यामें भी घटित कर लेना चाहिए । पर पद्मलेश्यामें प्रसनालीके कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन सम्भव नहीं है, इसलिए उसे सर्वत्र छोड़ देना चाहिए। मात्र इनमें अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क और औदारिकशरीरका अवक्तव्यपद सहस्रार कल्प तकके देवोंमें उपपादपदके समय और देवगतिचतुष्कके तीन पद इन्हीं देवोंमें मारणान्तिक समुद्घातके समय भी सम्भव हैं, इसलिए इनके उक्त पदवालोंका स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम पाँच बटे चौदह भागप्रमाण कहा है । इन प्रकृतियों के सिवा शेष प्रकृतियोंका विचार सहस्रारकल्पके समान कर लेना चाहिए,यह उक्त कथनका तात्पर्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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