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________________ १७४ महाबंधे पदेसबंधाहियारे पंचमस्स अवत्त० छचों । देवगदि०४ तिण्णि पदा छच्चों । अवत्त० खेत्तभंगो । एवं ओघिदं०-सम्मा०-खइग-वेदग-उवसम० । णवरि खइग०-उवसम० देवगदि०४ खेतभंगो । उवसम० तित्थ० खेत्तभंगो । बन्धक जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवगतिचतुष्कके तीन पदोंके बन्धक जीवाने त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा इनके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार अवधिदर्शनवाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें देवगतिचतुष्कका भङ्ग क्षेत्रके समान है तथा उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग क्षेत्रके समान है। विशेषार्थ-यहाँ देवा में विहारादिके समय भी पाँच ज्ञानावरणादि और चार अप्रत्याख्यानावरणके तीन पद तथा सातावेदनीय आदि व मनुष्यायुके सब पद बन जाते हैं, इसलिए इनके उक्त पदवालोंका स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाग कहा है । तथा जो संयत जीव इनकी बन्धव्युच्छित्ति होनेके बाद मरकर देव होते हैं या लौटकर पुनः इनका बन्ध करते हैं उनके इनका अवक्तव्यपद होता है । यतः ऐसे जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है, अतः इनके अवक्तव्यपदवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। इतनी विशेषता है कि इनमेंसे तीर्थङ्कर प्रकृतिका अवक्तव्यपद दूसरे और तीसरे नरकमें भी बन जाता है । तथा मनुष्यगतिपश्चकका अवक्तव्यपद जो सम्यग्दृष्टि तिर्यश्च मरकर देव होते हैं,उनके भी सम्भव है, इसलिए इनके अवक्तव्य पदवाले जीवोंका स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण प्राप्त होनेसे उसका अलगसे निर्देश किया है। जो सम्यग्दृष्टि मनुष्य प्रथम नरकमें उत्पन्न होते हैं,उनके भी इनका अवक्तव्य पद होता है,पर इससे उक्त स्पर्शनमें कोई अन्तर नहीं पड़ता। संयत और संयतासंयत जीवोंके असंयतसम्यग्दृष्टि होने पर या ऐसे जीवोंके मरकर देव होनेपर अप्रत्याख्यानावरण चतुष्कका अवक्तव्य पद होता है। यतः ऐसे जीवोंका स्पर्शन भी वसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण प्राप्त होता है, अतः यह उक्तप्रमाण कहा है । तिर्यच और मनुष्य देवोंमें मारणान्तिक समुद्धात करते समय भी देवगतिचतुष्कके तीन पद करते हैं, अतः इनके उक्त पदवाले जीवोंका स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण कहा है । तथा जो देव मरकर मनुष्योंमें उत्पन्न होते हैं,उनके इनका अवक्तव्य पद होता है । यतः ऐसे जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है,अतः यह क्षेत्रके समान कहा है। यहाँ अवधिदर्शनी आदि अन्य जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें यह प्ररूपणा बन जाती है, अतः उनमें उक्त तीन प्रकारके ज्ञानवाले जीवोंके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र क्षायिकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें कुछ विशेषता है । बात यह है कि जो क्षायिकसम्यग्दृष्टि तिर्यञ्च और मनुष्य देवोंमें मारणान्तिक समुद्भात करते हैं वे बहुत ही अल्प होते हैं और उनका स्पर्शन क्षेत्र भी सीमित है, इसलिए तो क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें देवगति चतुष्कके सब पदवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है । तथा उपशमसम्यग्दृष्टि तिर्यश्च तो देवोंमें मारणान्तिक समुद्धात ही नहीं करते । मनुष्य करते हैं सो जो उपशमश्रेणिवाले ऐसे मनुष्य हैं वे ही करते हैं, इसलिए इनमें भी देवगतिचतुष्कके सत्र पदवालोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें यही बात तीर्थङ्कर प्रकृतिके विषयमें भी जाननी चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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