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________________ भुजगारबंधे फोसणाणुगमो १८६. आभिणि-सुद-ओधिणा० पंचणा०-छदंस०-अट्ठक०-पुरिस०-भय-दु०मणुस-पंचिंदि०- [ ओरालि०-] तेजा-क०-समचदु० - [ओरालि.अंगो०-वञ्जरि०] वण्ण०.४- [मणुसाणु०-] अगु०४-पसत्थवि०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आदें-णिमि०तित्थ०-उच्चा-पंचंत० तिण्णिपदाअट्ठचों । अवत्त० खेत्तभंगो । सादासाद०-चदुणोक०थिरादितिण्णियुग. सव्वपदा अट्ठचों । अपञ्चक्खाण०४ तिण्णि पदा अट्टचों। अवत्त० छच्चों । मणुसाउ० साद भंगो। देवाउ० आहारदुगं खेत्तभंगो । मणुसगदिप्रमाण बतला आये हैं। पर यहाँ उसमेंसे ऊपरका एक राजू स्पर्शन कम हो जाता है, अतः यहाँ इनके तीन पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम ग्यारह बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। इनके अवक्तव्यपदकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान है, यह स्पष्ट ही है। तीसरा फरक औदारिकशरीरके अवक्तव्य पदकी अपेक्षा है। ओघसे यह स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण बतला आये हैं, क्योंकि वहाँ सम्यग्दृष्टि और मिथ्याष्टिका भेद न होनेसे नीचेके छह और ऊपरके छह इसप्रकार कुछ कम बारह राजू लिए गये हैं। किन्तु यहाँ नीचेके छह और ऊपर के पाँच इस प्रकार कुछ कम ग्यारह राजू ही लिए जा सकते हैं, क्योंकि बारहवें कल्प तकके देवोंमें ही तिर्यश्च मरकर उत्पन्न होते हैं। अभव्य और मिथ्यादृष्टियोंमें मत्यज्ञानियोंके समान प्ररूपणा बन जानेसे उनके समान जाननेकी सूचना की है। विभङ्गक्षानी पश्चेन्द्रिय ही होते हैं, इसलिए इनमें साधारणतः पञ्चेन्द्रियोंके समान जाननेकी सूचना की है। जो अन्तर है उसका अलगसे निर्देश किया है। बात यह है कि पञ्चेन्द्रियोंमें वैक्रियिकषट्कका भङ्ग ओघके समान बन जाता है और विभगङ्गज्ञानी मिथ्यादृष्टि होते हैं, अतः उनमें वह नहीं बनता। किन्तु मत्यज्ञानियों के जो स्पर्शन कहा है वह बनता है, अतः इनमें वैक्रियिकषट्कका भङ्ग मत्यज्ञानियों के समान जाननेकी सूचना की है। दूसरे पञ्चेन्द्रियोंमें औदारिकशरीरके अवक्तव्यपदकी अपेक्षा स्पर्शन वसनालीके कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण कहा है जो नारकियों और देवोंके उपपादपदके समय प्राप्त होता है। किन्तु देव और नारकी उपपादपदके समय विभङ्गज्ञानी नहीं होते, क्योंकि उनके यह अज्ञान पर्याप्त होनेपर प्राप्त होता है। अतः जो विभङ्गज्ञानी तिर्यश्च और मनुष्य औदारिकशरीरका अवक्तव्य पद कर रहे हैं,उन्हींकी अपेक्षा यहाँपर औदारिकशरीरके अवक्तव्यपदका स्पर्शन घटित किया जा सकता है और वह लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है। यही कारण है कि विभङ्गज्ञानमें औदारिकशरीरके अवक्तव्यपदवालोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान जाननेकी सूचना की है। १६. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, आठ कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पश्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इनके अवक्तव्यपदका भङ्ग क्षेत्रके समान है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय और स्थिर आदि तीन युगलके सब पदोंके बन्धक जीवोंने जसनालीके कछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अप्रत्याख्यानावरण चतुष्कके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने बसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा इनके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । मनुष्यायुका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । देवायु और आहारकद्विकका भङ्ग क्षेत्रके समान है। मनुष्यगतिपश्चकके अवक्तव्यपदके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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