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________________ महाबँधे पदे सबंधाहियारे १८८. संगे ओरा० कायजोगिभंगो । णवरि मिच्छ० अवत्त० बारहचोह ० । कोधादि ० १०४ ओघं । मदि- सुद० ओघं । णवरि देवगदि - देवाणु० तिष्णिपदा पंचचों० । अवत खेत्तभंगो । वेउ०- वेउ० अंगो० तिष्णिपदा ऍकारह० । अवत० खेत्तभंगो । ओरालि० अवत्त० ऍक्कारह० । एवं अन्भव०-मिच्छा० । विभंगे० पंचिदियभंगो | णवरि वेव्वियछक मदि० मंगो । ओरालि० अवत्त० खेत्तभंगो । १७२ बात यह है कि अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क और औदारिकशरीरका अवक्तव्यपद करनेवाले जीव ऊपर सर्वार्थसिद्धि तक उत्पन्न हो सकते हैं, अतः यहाँ इनके इस पदकी अपेक्षा स्पर्शन त्रसनाली के कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण प्राप्त होनेसे वह अलग से कहा है । १८८. नपुंसक वेदी जीवोंमें औदारिककाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि इनमें मिथ्यात्व के अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । क्रोधादि चार कषायवाले जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है । मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि इनमें देवगति और देवगत्यानुपूर्वीके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम पाँच बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इनके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । वैक्रियिक शरीर और वैक्रियिक शरीर आङ्गोपाङ्गके तीन पदोंके बन्धक जीवों ने त्रसनालीके कुछ कम ग्यारह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा इनके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। तथा औदारिकशरीरके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम ग्यारह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसीप्रकार अर्थात् मत्यज्ञानी जीवोंके समान अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंमें जानना चाहिए । विभङ्गज्ञानी जीवों में पञ्चेन्द्रियों के समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि इनमें वैक्रियिकषट्कका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है। तथा औदारिकशरीर के अवक्तव्यपदका भङ्ग क्षेत्रके समान है । विशेषार्थ – नपुंसकवेदी जीवोंमें मिथ्यात्वका अवक्तव्यपद नीचे कुछ कम पाँच और ऊपर कुछ कम सात इसप्रकार कुछ कम बारह राजूका स्पर्शन करते समय बन जाता है । किन्तु औदारिककाययोगी जीवों में कुछ कम सात राजूप्रमाण ही स्पर्शन प्राप्त होता है, क्योंकि नारकियोंके औदारिककाययोग सम्भव नहीं है । नपुंसकवेदी जीवोंमें औदारिककाययोगवालों की अपेक्षा इतनी मात्र विशेषता है । अन्य सब कथन एक समान होनेसे नपुंसकवेदी जीवोंमें औदारिककाययोगी जीवोंके समान जानने की सूचना की है । क्रोधादि चार कषायवाले जीवों में ओघके समान भङ्ग है, यह स्पष्ट ही है । मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें कुछ अपवादोंको छोड़कर शेष कथन ओके समान बन जाता है । जहाँ फरक है, उसका खुलासा इसप्रकार है - साधारणतः ये दोनों अज्ञानवाले मनुष्य अन्तिम ग्रैवेयक तक उत्पन्न होते हैं पर ऐसे जीव संख्यात ही होते हैं, अतः यहाँ तिर्योंकी मुख्यता है और ऐसे तिर्योंका उत्पाद सहस्रार कल्प तक होने से वे सहस्रार कल्प तक ही देवोंमें मारणान्तिक समुद्धात कर सकते हैं । यही कारण है कि यहाँ देवगतिद्विकके तीन पदवालों का स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम पाँच बढे चौदह भागप्रमाण कहा है। किन्तु ओघसे यह त्रसनाली के कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण प्राप्त होता है, क्योंकि ओघसे देवों में मारणान्तिक समुद्धात करनेवाले सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों प्रकारके जीव लिये गये हैं । इनके अवक्तव्यपदका स्पर्शन क्षेत्रके समान है, यह स्पष्ट ही है । एक फरक तो यह है। दूसरा फरक इसी कारण से वैक्रियिकद्विकके तीन पदोंकी अपेक्षा स्पर्शनमें पड़ता है । बात यह है कि ओघसे वैकिकिद्विकके तीन पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम बारह बटे चौदह भाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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