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________________ भुजगारबंधे फोसणाणुगमो १६०. संजदासंजदेसु धुविगाणं तिण्णि पदा छच्चो । सादादीणं सव्यपदा' छच्चों । देवाउ०-तित्थ० खेत्तभंगो । असंजद० ओघं । १६१. किण्ण-णील-काउ० धुवियाणं तिण्णि पदा सव्वलो० । णिरयगदि-णिरयाणु०-वेउ०-वेउ०अंगो० तिण्णि पदा छ-चत्तारि । अवत्त० खेत्तभंगो। दोआउ०देवगदि-देवाणु०-तित्थ० खेतभंगो। सेसाणं तिरिक्खोघं । णवरि ओरालि० अवत्त० छच्चत्तारि-बेचॉइस०। __ १६०. संयतासंयतोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम वह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय आदि प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । देवायु और तीर्थङ्कर प्रकृतिके बन्धक जीवोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है । असंयत जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। विशेषार्थ-संयतांसंयतोंका स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण है और यह ध्रुवबन्धवाली व इतर प्रकृतियोंके सब पदवालोंके बन जाता है, इसलिए यह उक्तप्रमाण कहा है । मात्र मारणान्तिक समुद्रात के समय आयुकर्मका बन्ध नहीं होता और संयतासंयतोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करनेवाले मनुष्य ही होते हैं । यतः ऐसे जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है। अतः इन प्रकृतियोंके सम्भव सब पदवालोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है । असंयत जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है,यह स्पष्ट ही है। १६१. कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंमें ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्गके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने त्रसनालोके कुछ कम छह, कुछ कम चार और कुछ कम दो बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इनके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। दो आयु, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग क्षेत्रके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है । इतनी विशेषता है कि औदारिकशरीरके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने सनालीके कुछ कम छह, कुछ कम चार और कुछ कम दो बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ-कृष्णादि तीन लेश्यावाले जीव सर्व लोकमें पाये जाते हैं, इसलिए इनमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदवाले जीवोंका स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण कहा है । कृष्णलेश्यामें सातवें नरक तकके, नील लेश्यामें पाँचवें नरकतकके और कापोत लेश्यामें तीसरे नरक तकके नारकियोंमें मारणान्तिक समुद्धात करते समय भी नरकगति आदिके तीन पद सम्भव हैं, इसलिए इनके इन तीन पदवाले जीवोंका स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम छह, कुछ कम चार और कुछ दो बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। किन्तु ऐसे समयमें इनका अवक्तव्यपद नहीं होता, इसलिए इनके अवक्तव्य पदवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। आयुका बन्ध मारणान्तिक समुद्भातके समय नहीं होता । कृष्ण और नीललेश्यामें देवगतिद्विकका बन्ध भी मारणान्तिक समुद्वातके समय सम्भव नहीं है, क्योंकि इन दो लेश्यावाले देवोंमें मारणान्तिक समुद्धात ही नहीं करते । कापोत लेश्यामें मारणान्तिक समुद्भातके समय भी देवगतिद्विकका बन्ध सम्भव है,पर १. ता०प्रतौ 'सत्त [व्व ] पदा' इति पाठः। २. आ०प्रतौ ‘पदा चत्तारि बे' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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