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________________ १६० महाबंधे पदेसबंधाहियारे वादर० तिण्णिपदा सत्तचों० । अवत्त० खेत्तभंगो। [अजस० तिणिप० लो० असंखें. सव्वलो० । अवत्त० सत्तचो० । ] सेसाणं सव्वपदा खेत्तभंगो। एवं सव्वअपजत्तगाणं विगलिंदिय-बादरपुढवि०-आउ०-तेउ०-वाउ०- चादरपत्तेयपज्जत्तगाणं च । [णवरि तेउ०वाऊणं मणुसगदिचदुकं वज । वाऊणं जम्हि लोग० असंखेंज० तम्हि लोग० संखेंज० ।] पदोंके बन्धक जीवोंने सनालीके कुछ कम सात बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा इसके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अयशःकीर्तिके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा इसके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। शेष प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इस प्रकार सब अपर्याप्त, विकलेन्द्रिय, बादरपृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त और बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंमें मनुष्यगतिचतुष्कको छोड़कर कहना चाहिए। तथा पूर्वमें जहाँ लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्शन कहा है वहाँ वायुकायिक जीवोंमें लोकके संख्यातवें भागप्रमाण स्पर्शन कहना चाहिए। विशेषार्थ-पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सर्व लोकप्रमाण बतलाया है। इस सब स्पर्शनके समय इनके ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियोंके तीन पद और सातावेदनीयदण्डकके चार पद सम्भव होनेसे इस अपेक्षा यह स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ ये हैं-पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तराय । साता-असातावेदनीय दण्डककी प्रकृतियाँ ये हैं-दो वेदनीय, चार नोकषाय, स्थिर, अस्थिर, शुभ और अशुभ । अन्य जिन प्रकृतियोंके जिन पदों के बन्धक जीवोंका यह स्पर्शन कहा है,वह इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए, अतः आगे इसे छोड़कर शेषका स्पष्टीकरण करते हैं । नपुंसकवेद आदिका अवक्तव्यबन्ध मारणान्तिक समुद्धातके समय नहीं होता, इसलिए . इनके इस पदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। ऊपर एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्धातके समय उद्योत और यश कीर्तिके सब पदोंका बन्ध सम्भव है, इसलिए इनके सब पदोंके बन्धक जीवोंका स्पशन त्रसनालीके कुछ कम सात बटे चौदह भागप्रमाण कहा है । बादर प्रकृतिके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका भी यही स्पर्शन कहा है सो उसका कारण भी इसी प्रकार जानना चाहिए । तथा इसका अवक्तव्यपद मारणान्तिक समुद्धातके समय नहीं होता, इसलिए इस पदकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है । ऊपर एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्धात करते समय अयशःकीर्तिका अवक्तव्यपद भी सम्भव है, इसलिए इसका इस पदकी अपेक्षा त्रसनालीके कुछ कम सात वटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है । अब रहीं शेष स्त्रीवेद, पुरुषवेद, दो आयु, मनुष्यगति, चार जाति, पाँच संस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, दो स्वर, आइय और उच्चगोत्र सो एक तो आयुकर्मका मारणान्तिक समुद्धातके समय बन्ध नहीं होता, दूसरे शेष प्रकृतियोंका यद्यपि मारणान्तिक समुद्धातके समय बन्ध होता है, फिर भी जिन जीवों सम्बन्धी ये प्रकृतियाँ हैं उनमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके मारणान्तिक समुद्भात करनेपर स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही १ ता०प्रतौ 'सेसाणं सव्वपदाणं सव्वपदा' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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