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________________ भुजगारबंधे फोसणाणुगमो १५६ ० १७८. पंचिंदि० तिरिक्खअप० धुवियाणं सव्वपदा लोग • असंखे० सव्वलो० । सादासादडओ पंचिदि० तिरि०भंगो | णपुंस ० [ तिरिक्ख- एइंदि० - हुंड० - तिरिक्खाणु०पर०-उस्सा०-थावर-सुहुम-पञ्जत्तापञ्जत्त- पत्ते ० साधा० - दूर्भाग- अणादें ० - णीचा० ] तिष्णिपदा लोगस्स असंख० सवलो० । अवत्त० खैत्तभंगो । उज्जो ० - जसगि० सव्वपदा सत्तचों० । क्षेत्रका स्पर्शन करते समय सम्भव होनेसे यह उक्त प्रमाण कहा है। आगे अयशःकीर्तिके चारों पदोंकी अपेक्षा जो स्पर्शन कहा है वह मिथ्यात्व के समान ही है, अतः उसे भी इसीप्रकार घटित कर लेना चाहिए | देवियों में मारणान्तिक समुद्घातके समय भी स्त्रीवेदके तीन पदोंका बन्ध होता है, इसलिए इसके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम डेढ़ बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। पर ऐसी अवस्थामें इसका अवक्तव्यपद नहीं होता, इसलिए इसके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। नारकियों में मारणान्तिक समुद्रातके समय नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरके तीन पद और देवोंमें मारणान्तिक समुद्घातके समय पुरुषवेद, देवगति, समचतुरस्रसंस्थान, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उन्नगोत्रके तीन पद सम्भव हैं, इसलिए इनके उक्त पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन त्रसनाली के कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। पर ऐसी अवस्था में इनका अवक्तव्यपद नहीं होता, अतः इनके इस पद के बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है । चार आयुओंके सब पद और इस दण्डककी शेष प्रकृतियोंका अवक्तव्यपद मारणान्तिक समुद्वातके समय नहीं होते । यद्यपि शेष प्रकृतियोंके तीन पद मारणान्तिक समुद्धात के समय भी होते हैं, पर जिन जीवोंसम्बन्धी ये प्रकृतियाँ हैं, उनका स्पर्शन ही लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिये इन प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है । नारकियों और देवों में मारणान्तिक समुद्धातके समय भी पञ्चेन्द्रियजाति आदि चार प्रकृतियोंके तीन पदोंका बन्ध होता है, अतः इनके उक्त पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। पर इनका अवक्तव्यपद ऐसे समय में नहीं होता, अतः इनके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है । ऊपर के एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्वातके समय भी उद्योत और यशःकीर्तिके सब पदोंका बन्ध सम्भव है, इसलिए इनके सत्र पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम सात बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। ऊपर सात और नीचे छह इसप्रकार कुछ कम तेरह राजुका स्पर्शन करते समय बादर प्रकृतिके तीन पदों का बन्ध सम्भव है, इसलिए इसके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन नाली के कुछ कम तेरह बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। पर मारणान्तिक समुद्रात के समय इसका अवक्तव्यपद नहीं होता, इसलिए इसकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है । १७८. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकों में ध्रुवबन्धवाली सब प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सातावेदनीय-असातावेदनीयदण्डकका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है । नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्रास, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्रके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा इनके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । उद्योत और यशःकीर्तिके सब पढ़ोंके बन्धक जीवोंने सनालीके कुछ कम सात बढे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । बादर प्रकृतिके तीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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