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________________ भुजगारबंधे फोसणाणुगमो १७६. तिरिक्खेसु धुविगाणं तिण्णिपदा सव्वलोगो। थीणगि०३-मिच्छ०अट्ठक०-ओरालि० तिण्णिपदा सव्वलो । अवत्त० खेत्तभंगो। णवरि मिच्छ० अवत्त० सत्तचोद्द ० । सेसाणं पगदीणं ओघं । १७७. पंचिंदि०तिरिक्ख०३ धुवियाणं भुज-अप्प०-अवढि० लोगस्स असंखें सव्वलो।थीणगि०३-अट्ठक'०-णवूस०-तिरिक्ख०-एइंदि०-ओरालि०-हुंड०-तिरिक्खाणु०पर०-उस्सा०-थावर-सुहुम-पज्जत्तापजत्त - पत्तेय-साधारण-भग - अणादेज्ज - णीचा० तिण्णिपदा लोग० असंखें० सव्वलो० । अवत्त० खेत्तभंगो। सादासाद०-चदुणोक० १७६. तिर्यश्चोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने सर्व लोकका स्पर्शन किया है । स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, आठ कषाय और औदारिक शरीरके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोकका स्पर्शन किया है । इनके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम सात वटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। विशेषार्थ-तिर्यञ्चोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, आठ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तराय इन ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पद एकेन्द्रिय आदि जीवोंके भी होते हैं और वे सब लोकमें पाये जाते हैं, इसलिए इनके उक्त पदोंके बन्धक जीवोंका सर्व लोक स्पर्शन कहा है। स्त्यानगृद्धि तीन आदिके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। मात्र इनका अवक्तव्यपद इनके अबन्धक होकर पुनः बन्ध करते समय होता है, ऐसे तिर्यञ्चोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है और क्षेत्र भी इतना ही है, इसलिए वह क्षेत्रके समान कहा है । मात्र मिथ्यात्वका अवक्तव्यपद ऐसे तिर्यञ्चोंके भी सम्भव है जो ऊपर एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्धात कर रहे हैं, इसलिए इसके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पशेन त्रसनालीके कुछ कम सात बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। अब रहीं शेष प्रकृतियाँ सो उनके सम्भव पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन ओघमें जिस प्रकार कहा है,उस प्रकार यहाँ पर भी घटित हो जाता है, इसलिए इसे ओघके समान जाननेकी सूचना की है। वे प्रकृतियाँ ये हैंदो वेदनीय, सात नोकषाय, चार आयु, चार गति, पाँच जाति, वैक्रियिकशरीर, छह संस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, चार आनुपूर्वी, परघात, उच्छास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रस आदि दस युगल और दो गोत्र । १७७. पञ्चेन्द्रियतिर्यश्चत्रिकमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्यानगृद्धित्रिक, आठ कषाय, नपुंसकवेद, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, हुण्डसंस्थान, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्रास, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्रके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा इनके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय, स्थिर, अस्थिर, शुभ और अशुभ १ ता० आ० प्रत्योः 'थीणगि० ३ मिच्छ-अटक०' इति पाटः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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