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________________ भुजगारबंधे फोसणाणुगमो १५५ होता है, इसलिए इनके अवक्तव्यपदवाले जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । स्त्यानगृद्धि तीन आदि आठ प्रकृतियोंके भुजगार आदि तीन पदोंका स्वामित्व ज्ञानावरणके समान है, इसलिए इनके उक्त तीन पदवाले जीवोंका स्पर्शन सर्व लोक कहा है । तथा इनका अवक्तव्यपद ऊपरके गुणस्थानोंसे गिरकर इनके बन्धके प्रथम समयमें होता है। ऐसे जीवोंका स्पर्शन देवोंके विहारवत्स्वस्थानकी मुख्यतासे त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण है, अतः वह उक्त प्रमाण कहा है। मिथ्यात्वके अवक्तव्य पदवाले जीवोंका यह स्पर्शन तो है ही पर नीचे कुछ कम पाँच राजू और ऊपर कुछ कम सात राजु प्रमाण क्षेत्रमें मारणान्तिक समुद्धातके समय भी इसका अवक्तव्यपद सम्भव है, इसलिए इसके अवक्तव्य पदवाले जीवोंका त्रसनालीक कुछ कम आठ और कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है । अप्रत्याख्यानावरण चतुष्कके भुजगार आदि तीन पदं एकेन्द्रिय आदि सब जीवोंके सम्भव हैं, इसलिए इनके इन तीन पदोंके बन्धक जीवोंको सर्व लोक स्पर्शन कहा है। तथा इनका अवक्तव्यपद ऊपर कुछ कम छह राजू प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन करनेवाले जीवोंके भी होता है, अतः इनके अवक्तव्यपदका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन त्रसनालोके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण कहा है । सातावेदनीय आदिके सब पद एकेन्द्रियादि सब जीवोंके सम्भव हैं, इसलिए इनके चारों पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सब लोक कहा है। यहाँ सातावेदनीय आदिसे सातावेदनीय, असातावेदनीय, सात नोकषाय, तिर्यश्चायु, तिर्यश्चगति, मनुष्यगति, पाँच जाति, छह संस्थान, औदारिकशरीरआङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, सादि दस युगल और दो गोत्र ये प्रकृतियाँ ली गई हैं । नरकायु और देवायुका बन्ध असंज्ञी जीव करते हैं। पर मारणान्तिक समद्धात और उपपादपदके समय इनका नहीं होता। तथा आहारकद्विकका बन्ध अप्रमत्तसंयत जीव करते हैं, अतः इनके चारों पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान प्राप्त होनेसे तत्प्रमाण कहा है । मनुष्यायुके चारों पद देवोंके विहारवत्स्वस्थानके समय भी सम्भव हैं और एकेन्द्रिय आदि जीवोंके भी सम्भव हैं, अतः इसके सब पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण और सर्व लोक कहा है । तियञ्चों और मनुष्योंके नारकियों और देवों में मारणान्तिक समुद्भात करते समय भी क्रमसे नरकगतिद्विकके और देवगतिद्विकके भुजगार आदि तीन पद सम्भव हैं, अतः इनके उक्त पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। परन्तु मारणान्तिक समुद्भातके समय इनका अवक्तव्यपद सम्भव नहीं है, अतः इनके इस पदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। औदारिकशरीरके तीन पदोंका बन्ध एकेन्द्रिय आदि जीव भी करते हैं, अतः इसके इन तीन पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन सर्व लोक कहा है । तथा नारकी और देव उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें औदारिकशरीरका अवक्तव्य बन्ध नियमसे करते हैं, अतः इसके इस पदकी अपेक्षा त्रसनालीके कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है। तिर्यञ्चों और मनुष्योंके नारकियों और देवोंमें मारणान्तिक समुद्धात करते समय भी वैक्रियिकद्विकके तीन पद सम्भव हैं, अतः इनके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन प्रसनालीके कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण कहा है । पर ऐसे तिर्यश्चों और मनुष्योंके इनका अवक्तव्यपद नहीं होता, इसलिए इनके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। देवोंके विहारवत्स्वस्थानके समय भी तीर्थङ्कर प्रकृतिके तीन पद सम्भव हैं, इसलिए इनके इन पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण कहा है । तथा तीर्थङ्कर प्रकृतिका अवक्तव्यपद मनुष्योंके तो सम्भव है ही और उपशमणिमें इसकी बन्धव्युच्छित्तिके बाद मरकर जो देव होते हैं उनके भी प्रथम समयमें सम्भव है । तथा इसका बन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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