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________________ भुजगारबंधे फोसणाणुगमो खेत्ताणुगमो १७३. खेत्ताणुगमेण दुवि० - ओघे० आदे० | ओघे० तिष्णिआउ० वेउच्चि ० छर्क आहारदुगं तित्थ० चत्तारि पदा धुवियाणं ओरालियसरीरस्स य अवत्तव्वगाणं केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे । सेसाणं सव्वपदा केवडि खेत्ते ? सव्वलोगे । एवं अट्ठासुदव्वं । सेसाणं सव्वेर्सि सव्वे भंगा ओघं देवगदिभंगो | णवरि एइंदियपंचकायाणं ओघादो साधेदव्वो । फोसणाणुगमो १७४. फोसणाणुगमेण दुवि० ओघे० आ० | ओघे० पंचणा० छदंस० अट्ठक० १५३ क्षेत्रानुगम १७३. क्षेत्रानुगम की अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश | ओघसे तीन आयु, वैक्रियिकपटूक, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिके चार पदोंके बन्धक जीवोंका तथा ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके और औदारिकशरीरके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका क्षेत्र कितना है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । शेष सब प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवांका क्षेत्र कितना है ? सर्व लोक है । इसी प्रकार सब अनन्त संख्यावाली मार्गगाओंमें जानना चाहिए । शेष मार्गणाओं में सब प्रकृतियोंके सब पदोंका भङ्ग ओघसे देवगतिके समान जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायिक जीवोंमें ओघके अनुसार साध लेना चाहिए । विशेषार्थ - तीन आयु, वैक्रियिकपट्क और तीर्थकर प्रकृतिके बन्धक जीव असंख्यात हैं तथा आहारकद्विकके बन्धक जीव संख्यात हैं । तथा ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों में पाँच ज्ञानावरणादिके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव संख्यात हैं और स्त्यानगृद्धित्रिक आदिके और औदारिकशरीर के अवक्तव्यपदके बन्धक जीव असंख्यात हैं, इसलिए इन प्रकृतियोंमें से तीन आयु, वैक्रियिकपट्क, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिके सब पदवालोंका तथा शेष प्रकृतियों के अवक्तव्यपदवालोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाग कहा है। इनके सिवा जो शेष प्रकृतियाँ रहती हैं अर्थात् ध्रुवबन्धवालीं प्रकृतियाँ तो अवक्तव्यपदके सिवा शेष पदोंकी अपेक्षा यहाँ शेष पदसे ली गई हैं और इनके सिवा परावर्तमान सब प्रकृतियाँ यहाँ सब पदोंकी अपेक्षा ली गई हैं सो उन सबके सब पदवालोंका क्षेत्र सर्व लोक है, क्योंकि इन प्रकृतियों के ये पद एकेन्द्रियों में भी पाये जाते हैं । यह ओघप्ररूपणा अनन्त संख्यावाली सब मार्गणाओं में अपनीअपनी बँधनेवालीं प्रकृतियों के अनुसार घटित हो जाती है, इसलिए उनमें ओघके अनुसार जानने की सूचना की है। शेष मार्गणाओंका क्षेत्र ही लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए उनमें ओघसे देवगतिके भङ्गके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र एकेन्द्रियके अवान्तर भेद और पाँच स्थावरकायिकों में विशेषता है, इसलिए उनमें ओघको लक्ष्यकर क्षेत्रके घटित करनेकी सूचना की है । स्पर्शनानुगम १४. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश | ओघसे पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, आठ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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