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________________ १५२ महाबंधे पदेसबंधाहियारे १७२. ओरालिमि० ओघ । कम्मइग-अणाहार० धुवियाणं भुज० कॅत्तिया ? अणंता । परियत्तमाणियाणं भुज०-अवत्त० केत्तिया ? अणंता। एदेसिं तिण्णि पदा देवगदिपंचग भुज० कैत्तिया ? संखेंजा। वेउ०मि० धुवियाणं भुजगारं कॅत्तिया ? असंखें । सेसाणं भुज० अवत्त० के० ? असंखेंजा। णवरि कम्म०-अणाहार० मिच्छ. अवत्त० कॅत्तिया ? असंखें । एवं एदेण बीजपदेण अणाहारग त्ति णेदव्यं । एवं परिमाणं समत्तं । १७२. औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार, पदवाले जीव कितने हैं। अनन्त हैं। परावर्तमान प्रकृतियोंके भुजगार और अवक्तव्यपदवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । मात्र इन तीन मार्गणाओंमें देवगतिपञ्चकके भुजगार पदवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार पदवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंके भुजगार और अवक्तव्य पदवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इतनी विशेषता है कि कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें मिथ्यात्वके अवक्तव्य पदवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इस प्रकार इस बीजपदके अनुसार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए । विशेषार्थ—औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंका परिमाण अनन्त है, इसलिए उनमें बन्धको प्राप्त होनेवाली प्रकृतियोंके यथासम्भव पदोंका भङ्ग ओघके समान बन जानेसे वह उसके समान कहा है । कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंका भी परिमाण अनन्त है, अतः इनमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार पदके बन्धक जीवोंका और परावर्तमान प्रकृतियोंके भुजगार और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका परिमाण अनन्त कहा है। मात्र पूर्वोक्त तीन मार्गणाओंमें देवगतिपश्चकके बन्धक जीव संख्यात ही होते हैं, क्योंकि जो देव और नारकी सम्यक्त्वके साथ मरते हैं वे संख्यात ही होते हैं और जो मनुष्य सम्यक्त्वके साथ मरकर तिर्यश्चों और मनुष्योंमें उत्पन्न होते हैं, वे भी संख्यात ही होते हैं, इसलिए इनमें उक्त पाँच प्रकृतियोंके भुजगार पदवालोंका परिमाण संख्यात कहा है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंका परिमाण असंख्यात है, इसलिए इनमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार पदवालोंका और परावर्तमान प्रकृतियोंके भुजगार और अवक्तव्य पदवालोंका परिमाण असंख्यात कहा है। यहाँ कार्मण काययोगी और अनाहारक जीवोंमें मिथ्यात्वके अवक्तव्यपदवाले असंख्यात होते हैं-यह जो कहा है सो उसका कारण यह है कि जो सासादनसम्यग्दृष्टि इन मार्गणाओंमें मिथ्यात्वको प्राप्त होते हैं, वे असंख्यातसे अधिक नहीं हो सकते, क्योंकि उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंका परिमाण ही असंख्यात है। इस प्रकार यहाँ तक जो परिमाण कहा है,उसे बीजपद मानकर उसके अनुसार अन्य सब मार्गणाओंमें बन्धको प्राप्त होनेवाली प्रकृतियोंके यथासम्भव भुजगार आदि पदवाले जीवोंका परिमाण ले आना चाहिए। इस प्रकार परिमाण समाप्त हुआ। १. आ०प्रतौ 'आहार' इति पाठः । २ ता०प्रतौ 'णवरि कम्म० अणाहार० । मिच्छ०' इति पाठः । ३ ता०प्रतौ 'एदेण बीजेण' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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