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________________ १५१ भुजगारबंधे परिमाणाणुगमो वेउब्वियछक्कं भुज-अप्प०-अवढि०-अवत्त० कत्तिया० ? असंखेंजा । आहारदुगं चत्तारि पदा कौत्तया ? संखेज्जा' । तित्थ० तिणि पदा कैत्तिया ? असंखेंज्जा। अवत्त० कॅत्तिया ? संखेंजा । सेसाणं सादादीणं चत्तारि पदा कत्तिया ? अणंता । एवं ओघभंगो कायजोगि ओरा०-णस०-कोधादि०४-अचक्खु०-भवसि०-आहारग त्ति । स्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। आहारकद्विकके चारों पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। तीर्थङ्करप्रकृतिके तीन पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । अवक्तव्यपदके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। शेप सातावेदनीय आदि प्रकृतियों के चार पदोंके वन्धक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं ? इसीप्रकार ओघके समान काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदवाले, क्रोधादि चार कपायवाले, अचक्षुदर्शनवाले, भव्य और आहारक जीवोंमें जानना चाहिए। विशेषार्थ-यहाँ पाँच ज्ञानावरणादि पैतीस प्रकृतियोंके भुजगार आदि तीन पद एकेन्द्रियोंके भी बन जाते हैं, इसलिए इनका परिमाण अनन्त कहा है । तथा इनका अवक्तव्य पद या तो सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनीके सम्भव है या ऐसे यथासम्भव मनुष्योंके मरकर देव होनेपर उनके प्रथम समयमें सम्भव है। ये जीव यतः संख्यातसे अधिक नहीं होते, अतः इनके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है। स्त्यानगृद्धित्रिक आदि तेरह प्रकृतियोंके तीन पद एकेन्द्रियोंके भी बन जाते हैं, इसलिए इनका परिमाण अनन्त क तथा इनका अवक्तव्यपद संज्ञी पञ्चेन्द्रियों में प्राप्त होता है, इसलिए इनके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका परिमाण असंख्यात कहा है । नरकायु, मनुष्यायु और देवायु इन तीन आयुओंके और वैक्रियिकषट्कके बन्धक जीव ही असंख्यात हैं, इसलिए इनके चारों पदोंके बन्धक जीवोंका परिमाण असंख्यात कहा है । आहारकद्विकके चार पद तो अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरणमें ही होते हैं, इसलिए इनके चारों पदोंके बन्धक जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है। तीर्थङ्करप्रकृतिके तीन पद नरक, मनुष्य और देव इन तीनों गतियोंमें सम्भव हैं, इसलिए इसके भुजगार आदि तीन पदोंके बन्धक जीवोंका परिमाण असंख्यात कहा है। यद्यपि इसका अवक्तव्यपद भी उक्त तीन गतियोंमें होता है,पर वह तीर्थङ्करप्रकृतिका बन्ध करनेवाले सब जीवोंके सर्वदा नहीं होता। एक तो तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध करनेवाले जो मनुष्य मिथ्यादृष्टि होकर दूसरे और तीसरे नरकमें उत्पन्न होते हैं। उनके पुनः इसका बन्ध प्रारम्भ करने पर होता है। दूसरे मनुष्यगतिमें जो तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध प्रारम्भ करता है उसके होता है या उपशमश्रोणिसे गिरकर आठवें गणस्थानमें इसका बन्ध प्रारम्भ करने पर होता है। तीसरे तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करनेवाला जो मनुष्य उपशमश्रेणिमें इसकी बन्धव्युच्छिति करनेके बाद मरकर देवोंमें उत्पन्न होता है,उसके होता है। यतः ऐसे जीवोंका जोड़ एक समयमें संख्यातसे अधिक नहीं होता। अतः इसके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है। शेष रहीं दो वेदनीय, सात नोकषाय, तिर्यञ्चायु, दो गति, पाँच जाति, छह संस्थान, औदारिक शरीर आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, परघात, उच्छास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, सादि दस युगल और दो गोत्र सो इन साठ प्रकृतियोंके चारों पद एकेन्द्रियोंके भी सम्भव हैं, अतः इनका परिमाण अनन्त कहा है। यहाँ काययोगी आदि जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें ओघ प्ररूपणाकी अपेक्षा यह परिमाण अविकल घटित हो जाता है, अतः उनमें ओघके समान जाननेकी सूचना की है। १ ता प्रतौ 'आहारदु०..... संखेजा' आ०प्रतौ 'आहारदुर्ग....केत्तिया ? संखेजा' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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