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भुजगारबंधे अंतरकालाणुगमो भंगो । अवत्त० ओघं । ].......
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नपुंसकवेदके समान है। तथा अवक्तव्यपदका भङ्ग ओघके समान है।
विशेषार्थ-इन दोनों अज्ञानोंमें सैंतालीस ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध होता रहता है, इसलिए यहाँ इनके भुजगार और अल्पतरपदका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त तथा अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तर जगश्रोणिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । यहाँ इनका अवक्तव्यपद नहीं है,यह स्पष्ट ही है। दो वेदनीय आदि चौदह प्रकृतियाँ यद्यपि परावर्तमान हैं, पर इनके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान बन जानेसे वह ज्ञानावरणके समान कहा है। तथा इनका अन्तर्मुहूर्तमें दो बार बन्ध सम्भव है, इसलिए इनके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। नपुंसकवेद आदि सोलह प्रकृतियोंका उत्तम भोगभूमिमें पर्याप्त होनेपर कुछ कम तीन पल्यतक बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके भुजगार अल्पतर और अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य कहा है। इनके अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है,यह स्पष्ट ही है। चार आयु आदि तेरह प्रकृतियोंके चारों पदोंका भङ्ग जो ओघमें कहा है वह यहाँ भी बन जाता है, इसलिए इसे ओघके समान जाननेकी सूचना की है। तिर्यञ्चगति आदि तीन प्रकृतियोंका बन्ध इन अज्ञानोंमें साधिक इकतीस सागरतक नहीं होता, इसलिए इनके भुजगार और अल्पतरपदका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक इकतीस सागर कहा है। इनके अवस्थित और अवक्तव्य पदका भङ्ग ओघके समान है,यह स्पष्ट ही है । मात्र उद्योत परावर्तमान प्रकृति है, इसलिए इसका अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंमें उनकी कायस्थितिप्रमाण कालतक निरन्तर बन्ध सम्भव नहीं है । हाँ, नौवें अवेयकमें इसका बन्ध नहीं होता और आगे-पीछे भी अन्तर्मुहूर्त कालतक इसका बन्ध न हो, यह सम्भव है, इसलिए इसके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर साधिक इकतीस सागर ही जानना चाहिए । चार जाति आदि नौ प्रकृतियोंका बन्ध सातवें नरकमें नहीं होता और आगे-पीछे भी अन्तमुहूर्त कालतक इनका बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्य पदका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है। इनके अवस्थितपदका भङ्ग ओघके समान है यह स्पष्ट ही है। पश्चेद्रियजाति आदि सात प्रकृतियों के तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान बन जानेसे वह उनके समान कहा है। तथा सातवें नरकमें पूरी आयुप्रमाण
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