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________________ १४८ महाबंधे पदेसबंधाहियारे अप्प०-अवढि० णाणाभंगो। अवत्त० जह० उक्क० अंतो०। णवूस०-पंचसंठा०छस्संघ०-अप्पसत्थ०-दूभग-दुस्सर-अणादें भुज०-अप्प० जह० एग०, अवत्त० जह. अंतो०, उक्क० तिण्णि पलि० देमू० । अवट्टि० णाणाभंगो। चदुआउ० वेउव्वियछकं मणुसगदितिगं भुज-अप्प०-अवढि०-अवत्त० ओघं । तिरिक्ख०-तिरिक्खाणु ०-उजो० भुज०-अप्प० जह० एग०, उक्क० ऍकत्तीसं० सादि० । अवट्टि०-अवत्त० ओघं । णवरि उज्जो० अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० एकत्तीसं० सादिः । [चदुजादि-आदाव-थावर४ भुज०-अप्प० जह० ए०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सादि० । अवढि० ओघं ।] पचिंदि०-पर-उस्सा०-तस०४ भुज०-अप्प०-अवढि० णाणाभंगो। अवत्त० जह० अंतो०, उक० तेत्तीसं० सादि० । ओरालि• भुज०-अप्प० जह० एग०, उक्क० [तिण्णि पलिदो० देसू० । अवढि०-अवत्त० ओघं । समचदु ०-पसत्थ०-सुभग-सुस्सर-आर्दै तिण्णिप० णाणाभंगो। अवत्त० जह• अंतो०, उक्क० तिण्णिपलिदो० देसू० । ओरालि अंगो० भुज०-अप्प० जह० एग०, उक्क० तिण्णिपलिदो० देसू० । अवढि० ओघ । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सादि० । णीचा० तिण्णिपदा० णसगवरणके समान है। अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, छह संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेयके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। तथा अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। चार आयु, वैक्रियिकपटक और मनुष्यगतित्रिकके भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यपदका भङ्ग ओघके समान है। तिर्यश्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक इकतीस सागर है। अवस्थित और अवक्तव्यपदका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि उद्योतके अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक इकतीस सागर है । चार जाति, आतप और स्थावर आदि चारके भजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और तीनोंका उत्कृष्ट अन्तर साधक तेतीस सागर है। अवस्थितपदका भङ्ग ओघके समान है। पञ्चेन्द्रियजाति, परघात, उच्छास और त्रसचतुष्कके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूते है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। औदारिकशरीरके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। अवस्थित और अवक्तव्य पदका भङ्ग ओघके समान है। समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्गके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। अवस्थितपदका भङ्ग ओघके समान है । अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। नीचगोत्रके तीन पदोंका भङ्ग १ ता. प्रतौ 'उक्क० तेत्तीसं सादिः' इति पाटः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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