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________________ १४७ भुजगारबंधे अंतरकालाणुगमो १६७. अवगदवे० सव्वपगदीणं भुज०-अप्प०-अवढि ० जह० एग०, उक० अंतो० । अवत्त० णत्थि अंतरं । १६८. कोधकसाइसु पंचणा०-चदुदंस०-चदुसंज-पंचंत० भुज-अप्प०-अवट्टि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । सेसाणं मणजोगिभंगो। एवं माण-मायाणं । णवरि तिण्णिसंज०-दोसंज० । लोभे० पंचणा०-चदुदंस०-पंचंत० भुज-अप्प०-अवढि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । सेसाणं मणजोगिभंगो।। १६६. मदि-सुदे धुवियाणं भुज०-अप्प० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अपहि. जह० एग०, उक्क० सेढीए असंखेंजदि० । दोवेद०-छण्णोक०-थिरादितिण्णयु० भुन० होकर व अन्तर्मुहूर्तमें सम्यग्दृष्टि होकर तीर्थकर प्रकृतिका पुनः बन्धका प्रारम्भ कर अवक्तव्यपद किया। इस प्रकार इस प्रकृतिके अवक्तव्यपदके दो बार वन्ध होनेमें उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त काल प्रमाण प्राप्त होनेसे वह उतना कहा है। १६७. अपगतवेदी जीवोंमें सब प्रकृतियोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। विशेषार्थ-क्षपकश्रेणिकी अपेक्षा अपगतवेदी नौवें और दसवें गुणस्थानका काल और उपशमश्रोणिकी अपेक्षा अपगतवेदका काल अन्तर्मुहूर्तसे अधिक नहीं है, इसलिए इसमें सब प्रकृतियोंके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। तथा क्षपकश्रेणिमें तो इन प्रकृतियोंका अवक्तव्यपद होता ही नहीं। हाँ उपशमश्रोणिमें इनका अवक्तव्यपद होता है,पर वह उतरते समय एक बार ही होता है, इसलिए यहाँ इनके अवक्तव्यपदके अन्तरकालका निषेध किया है। १६८. क्रोध कषायवाले जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। इसी प्रकार मान और माया कषायवाले जीवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें क्रमसे तीन संज्वलन और दो संज्वलन लेने चाहिए। लोभकषायवाले जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। विशेषार्थ-यहाँ चारों कषायवाले जीवोंमें सब प्रकृतियोंके यथासम्भव पदोंका अन्तरकाल मनोयोगी जीवोंके समान बन जाता है । मात्र श्रोणिमें क्रोध कषायमें चार संज्वलनोंका, मानकषायमें तीन संज्वलनोंका और मायाकषायमें दो संज्वलनोंका बन्ध सम्भव है । तथा लोभ कषायमें एक भी संज्वलनका बन्ध न हो यह भी सम्भव है, इसलिए इस फरकका बोध करानेके लिए विशेषरूपसे उल्लेख किया है। १६६. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर जगश्रीणिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। दो वेदनीय, छह नोकषाय और स्थिर आदि तीन युगलके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञाना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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