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________________ १४६ महाबंधे पदेसबंधाहियारे और निर्माण ये प्रकृतियाँ ली गई हैं सो इन प्रकृतियोंका भङ्ग ओघप्ररूपणामें जिसप्रकार कहा है वह यहाँ भी बन जाता है, इसलिए ओघके समान जाननेको सूचना की है। यद्यपि यहाँ इनका अवक्तव्यपद तो सम्भव है पर उसका अन्तरकाल सम्भव नहीं है, क्योंकि इस मार्गणामें इनका अवक्तव्यपद होकर पुनः अवक्तव्यपद होनेके पूर्व नियमसे मार्गणा बदल जाती है, इसलिए इस मार्गणामें इन प्रकृतियोंके अवक्तव्यपदके अन्तरकालका निषेध किया है। सातावेदनीयदण्डकमें ये प्रकृतियाँ ली गई है-सातावेदनीय, असातावेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयश कीर्ति । आठ कषायदण्डककी प्रकृतियाँ स्पष्ट ही हैं। इन दोनों दण्डकोंके चारों पदोंका अन्तरकाल ओघके समान यहाँ घटित हो जानेसे वह ओघके समान कहा है । स्त्रीवेद आदि सत्रह प्रकृतियोंका बन्ध यहाँ कुछ कम तेतीस सागर तक न हो, यह सम्भव है। मिथ्यात्वप्रकृतिके विषयमें भी यही बात है, इसलिए यहाँ इन प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतरपदका अन्तरकाल मिथ्यात्वके समान घटित हो जानेसे वह उसके समान कहा है। इनके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर इसी कारण घटित कर लेना चाहिए । तथा इनके अवस्थित पदका अन्तर ओघके समान है, यह स्पष्ट ही है। पुरुषवेद आदि छह प्रकृतियोंके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान प्राप्त होनेसे वह उसके समान कहा है । तथा नपुंसकवेदीके कुछ कम तेतीस सागर तक इनका निरन्तर बन्ध सम्भव है और इनका अवक्तव्य पद इस कालके आगे-पीछे ही सम्भव है, इसलिए इनके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है। तीन आयु आदि चौदह प्रकृतियोंका भङ्गओघके समान और देवायुका भङ्ग मनुष्यिनीके समान है,यह स्पष्ट ही है। अलग-अलग स्पष्टीकरण देखकर कर लेना चाहिए । यहाँ तिर्यञ्चगतित्रिकका बन्ध कुछ कम तेतीस सागर तक हो,यह सम्भव है, इसलिए इनके भुजगार और अल्पतरपदका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। शेष दो पदोंका भङ्ग ओघके समान है,यह ओघ प्ररूपणाको देखकर घटित कर लेना चाहिए। चार जाति आदि नौ प्रकृतियोंका बन्ध नरकमें नहीं होता और वहाँ प्रवेश करनेके पूर्व और वहाँसे निकलनेके बाद अन्तर्मुहूर्त काल तक नहीं होता, इसलिए यहाँ इनके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है। इनके अवस्थितपदका भङ्ग ओघके समान है,यह स्पष्ट ही है। पश्चेन्द्रियजाति आदि सात प्रकृतियोंका बन्ध नरकमें और वहाँ प्रवेश करनेके पूर्व व निकलनेके बाद अन्तर्मुहूर्त काल तक नियमसे होता रहता है, इसलिए इनके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है। इनके शेष पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है, यह स्पष्ट ही है। यहाँ सम्यग्दृष्टि मनुष्य और तियश्चके कुछ कम एक पूर्वकोटि काल तक औदारिकशरीरका बन्ध नहीं होता, इसलिए इसके भुजगार और अल्पतरपदका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। शेष पदोंका भङ्ग ओघके समान है, इसलिए वहाँसे देखकर घटित कर लेना चाहिए । औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग और वर्षभनाराचसंहननका अन्य भङ्ग औदारिकशरीरके समान है। केवल इनके अवक्तव्यपदके अन्तरकालमें फरक है। बात यह है कि इस मार्गणामें औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग का साधिक तेतीस सागर काल तक और वज्रषभनाराचसंहननका कुछ कम तेतीस सागर काल तक निरन्तर बन्ध सम्भव होनेसे इनके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। नपुंसकवेदमें साधिक तीन सागर तक तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध सम्भव है, इसलिए यहाँ इस प्रकृतिके अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है भमें और अन्तमें अवस्थितपद कराकर यह अन्तरकाल ले आना चाहिए। तथा नरकायुके बन्धवाले नपुंसकवेदी मनुष्यमें एक पूर्वकोटिके कुछ कम विभागप्रमाण काल तक ही तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध सम्भव है। ऐसे मनुष्यने तीथेङ्कर प्रकृतिके बन्धके प्रारम्भमें अवक्तव्यपद किया और द्वितीय व तृतीय नरकमें उत्पन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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