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भुजगारबंधे अंतरकालाणुगमो
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तिरिक्खगदितिगं भुज ० - अप्प० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं० देसू० | सेसपदा ओघं । चदुजादि -आदाव थावरादि ० ४ भुज० - अप्प ० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं० सादि ० । अव डि० ओघं । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं० सादि० । पंचिंदि०१०- पर०-उस्सा० -तस०४ भुज० - अप्प० - अव०ि णाणा० भंगो । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं० सादि० । ओरा० भुज० - अप्प० जह० एग०, उक्क० पुव्वकोडी० देसू० । अवडि० - अवत्त० ओघं एवं ओरालि० अंगो०- वञ्जरि० । णवरि अवत्त ० जह० अंतो०, उक्क ० तेत्तीसं० सादि० । वज्ररिसभ० तैंतीसं० देसू० । तित्थ० भुज० - अप्प० जह० ए०, उक्क० अंतो० | अवडि० जह० एग०, उक्क० तिग्णि साग० सादि० अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पुव्वको डितिभागं देखू० ।
तिर्यञ्चगतित्रिक के भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । शेष पदोंका भङ्ग ओघके समान है । चार जाति, आतप और स्थावर आदि चारके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । अवस्थितपदका भङ्ग ओघके समान है । अवक्तव्यपद्का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर | पञ्चेन्द्रियजाति, परघात, उच्छ्रास और त्रसचतुष्कके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । औदारिकशरीर के भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है । अवस्थित और अवक्तव्यपदका भङ्ग ओघके समान है । इसी प्रकार औदारिकशरीरआङ्गोपाङ्ग और वज्रर्षभनाराचसंहननका भङ्ग जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । तथा वज्रर्षभनाराचसंहननके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । तीर्थङ्कर प्रकृति भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन सागर है । अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्व कोटिका कुछ कम विभागप्रमाण है ।
विशेषार्थ – नपुंसकवेद में पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तराय इस प्रथम दण्डकका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान बन जानेसे वह उनके समान कहा है । मात्र नपुंसकवेदी जीवोंकी कायस्थिति अनन्तकालप्रमाण होनेसे इनमें इस दण्डकके अवस्थित पदका उत्कृष्ट अन्तर ओघके समान जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण बन जाने से वह ओघके समान कहा है । स्त्यानगृद्धित्रिक दण्डकसे स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्क ये आठ प्रकृतियाँ ली गई हैं। नपुंसकवेदी जीवों में इनका कुछ कम तेतीस सागर काल तक बन्ध न हो, यह सम्भव है, इसलिए इनके भुजगार और अल्पतर पदका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है । इनके अवस्थितपदका भङ्ग ओघके समान है, यह स्पष्ट ही है। तथा नपुंसक वेदी जीवके अर्धपुद्गल परावर्तनकालके प्रारम्भ में और अन्तमें इनका अवक्तव्यपद हो और मध्यमें न हो, यह भी सम्भव है, इसलिए इनके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है निद्रा प्रचलादण्डकसे निद्रा, प्रचला, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात
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