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________________ १४४ महाबंधे पदेसबंधाहियारे १६६. णqसगे पढमदंडओ इत्थिभंगो। णवरि अवढि० ओघं । थीणगिद्धितिगदंडओ दोपदा जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं० देसू० । अवढि० ओघं। अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० अंद्धपोग्गल । णिद्दा-पयलदंडओ ओघ । णवरि अवत्त० णत्थि । असाददंडओ अट्ठकसायदंडओ ओघो। इत्थि०-णस-पंचसंठा-पंचसंघ०-उज्जो०अप्पसत्थ०-दूभग-दुस्सर-अणादें भुज०-अप्प० मिच्छत्तभंगो। अवत्त० जह० अंतो०, उक० तेत्तीसं० देसू० । अवहि० ओघं । पुरिस०-समचदु०-पसत्थ०-सुभग-सुस्सर-आदें। तिण्णिपदा णाणाभंगो । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं० देसू० । तिण्णिआउ० वेउब्बि०छकं मणुसगदितिगं आहारदुगं सव्वपदा ओघं । देवाउ० मणुसि भंगो। अपूर्वकरण गुणस्थानमें देवगतिचतुष्ककी बन्धव्युच्छित्ति कर और इस गुणस्थानको प्राप्त होनेके पूर्व मरकर जो तेतीस सागरकी आयुके साथ देवोंमें उत्पन्न होता है, उसके इतने काल तक इन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर काल साधिक तेतीस सागर कहा है। मात्र पहले और बादमें इन प्रकृतियोंके यथास्थान भुजगार आदि पद प्राप्तकर यह अन्तरकाल लाना चाहिए । इनके अवस्थित पदका उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है.यह स्पष्ट ही है। पञ्चन्द्रियजाति आदिके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है सो उसे देखकर घटित कर लेना चाहिए । तथा पुरुषवेदीके इनका एक सौ त्रेसठ सागर तक निरन्तर बन्ध सम्भव है, इसलिए इनके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। आहारकद्विकका कायस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें बन्ध हो और मध्यमें न हो यह सम्भव है, इसलिए इनके चारों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण कहा है। समचतुरस्त्रसंस्थान आदिके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है, यह स्पष्ट ही है । तथा इनका कुछ कम तीन पल्य अधिक दो छयासठ सागर काल तक निरन्तर बन्ध सम्भव है, इसलिए इनके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है । तीर्थङ्करप्रकृतिके अन्य पदोंका अन्तरकाल तो स्पष्ट है । मात्र अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तरकाल जो कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है सो वह जिस भवमें तीर्थङ्कर प्रकृतिके बन्धका प्रारम्भ होता है,उस भवकी अपेक्षासे जानना चाहिए । कारण कि जिस भवमें तीर्थङ्करका उदय होता है, उसमें उसका उपशमश्रेणिपर आरोहण नहीं होता,यह बात इसी अन्तरकालसे ज्ञात होती है। १६६. नपुंसकवेदी जीवोंमें प्रथम दण्डकका भङ्ग स्त्रीवेदवाले जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि अवस्थितपदका भङ्ग ओघके समान है । स्त्यानगृद्धित्रिक दण्डकके दो पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । अवस्थितपदका भङ्ग ओघके समान है। अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। निद्रा-प्रचलादण्डकका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इनके श्रवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। असातावेदनीयदण्डक और आठ कषायदण्डकका भङ्ग ओघके समान है । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेयके भुजगार और अल्पतरपदका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है । अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । अवस्थितपदका भङ्ग ओघके समान है । पुरुषवेद, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। तीन आयु, वैक्रियिकषट्क, मनुष्यगतित्रिक और आहारकद्विकके सब पदोंका भङ्ग ओघके समान है। देवायुका भङ्ग मनुष्यिनियोंके समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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