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________________ भुजगारबंधे अंतरकालाणुगमो १४१ १६५. पुरिसेसु पढमदंडओ थीणगिद्धिदंडओ णिहादंडओ सादा० दंडओ अकसायदंडओ इत्थवेददंडओ पंचिंदियपजत्तभंगो। णवरि पंचणा० चदुदंस० - चदुसंज० पंचत० अवत्तत्रं णत्थि । णिद्दादंडओ अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० कार्यट्टिदी० । पुरिस० तिष्णिपदा० णाणा०संगो । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० बेछावट्टि० दे० अंतोमुहुत्त० । णवुंस० पंचसंठा ०- पांचसंघ० - अप्पसत्थ००-दूभग-दुस्सर-अणादे०णीचा० भुज० - अप्प० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० बेद्यावडि० हुआ और आयुके अन्त में पुनः देवायुका बन्ध किया । इसप्रकार देवायुके दो बार बन्धके साथ चार पदों के प्राप्त होनेमें पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक अट्ठावन पल्यका उत्कृष्ट अन्तर आता है, अतः यह अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। देवीके नरकगति आदिका बन्ध नहीं होता । तथा वहाँसे आनेके बाद भी अन्तर्मुहूर्तकाल तक इनका बन्ध सम्भव नहीं है, इसलिए इनके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर साधिक पचपन पल्य कहा है । देवगतिचतुष्कको छोड़कर अन्य प्रकृतियोंका देवी होनेके पूर्व भी अन्तर्मुहूर्तकाल तक बन्ध नहीं होता, यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए | इनके अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तर कार्यस्थितिप्रमाण है, यह स्पष्ट ही है । उत्तम भोगभूमि में सम्यग्दृष्टि होनेपर मनुष्यगति आदिका बन्ध नहीं होता और वहाँ सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है, इसलिए यहाँ इनके दो पदोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्यप्रमाण कहा है । अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तरकाल कार्यस्थितिप्रमाण है, यह स्पष्ट ही है । तथा देवीके सम्यक्त्वके कालमें कुछ कम पचवन पल्य तक इनका निरन्तर बन्ध होते रहनेसे अवक्तव्य पद सम्भव नहीं है, इसलिए इनके उक्त पदका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। औदारिक शरीरके तीन पढ़ोंका अन्तरकाल तो मनुष्यगतिके समान ही है । मात्र इसके अवक्तव्य पदके अन्तरकालमें फरक है । बात यह है कि देवीके निरन्तर औदारिकशरीरका ही बन्ध होता है, इसलिए इसके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर साधिक पचवन पल्य बन जानेसे वह उक्त कालप्रमाण कहा है। परघात आदिके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर औदारिकशरीर के समान ही घटित कर लेना चाहिए। इनके शेष तीन पदोंका अन्तरकाल ज्ञानावरणके समान है, यह स्पष्ट ही है । आहारकद्विकका कार्यस्थितिके प्रारम्भ में और अन्तमें बन्ध हो, यह सम्भव है, इसलिए इनके चारों पढ़ोंका उत्कृष्ट अन्तर कार्यस्थितिप्रमाण कहा है। मनुष्यनीके कुछ कम एक पूर्वकोटि काल तक तीर्थप्रकृतिका बन्ध सम्भव है, इसलिए यहाँ इसके अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। यहाँ इसके अवक्तव्य पदका अन्तरकाल सम्भव नहीं है, क्योंकि इसके बन्धका प्रारम्भ होनेपर ही एकमात्र इसका अवक्तव्यपद होता है अन्यका नहीं । यद्यपि उपशमश्रेणी से उतरनेपर स्त्रीवेदमें पुनः इसका अवक्तव्यपद सम्भव है, र उपशमणिमें मार्गणा बदल जाती है, अतः यहाँ इसके अवक्तव्यपदकके अन्तरकालका निषेध किया है। शेष कथन सुगम है। १६५. पुरुषवेदी जीवों में प्रथमदण्डक, स्त्यानगृद्धिदण्डक, निद्रादण्डक सातावेदनीयदण्डक, आठ कषायदण्डक और स्त्रीवेददण्डकका भङ्ग पञ्चेन्द्रियपर्याप्तक जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायका अवक्तव्यपद नहीं है । निद्रादण्डक अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है । पुरुषवेदके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त अधिक दो छयासठ सागर है । नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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