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________________ १४२ महाधे पदेसबंधाहियारे सादि० तिणि पलि० देसू० । अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० कायद्विदी० । णिरयाउ० इत्थि० भंगो । दोआउ० पंचिंदियभंगो । देवाउ० भुज० अप्प० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं० सादि० । अवट्ठि० जह० एग० उक्क० कायट्ठिदी० । णिरयग० चदुजादि- णिरयाणु० आदाव थावरादि ०४ तिण्णि पदा जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तेवट्टिसागरोवमसदं । अवडि० जह० एग०, उक० कायहिदी० | आरणच्चुदि सम्मन्तं गहेण तदो बेछावट्टिसागरोवमाणि भमिदूणसव्वऍकतीसं गदो मिच्छत्तं गदो ताओ तं णादूण के पुणो बंधदि । तिरिक्खगदितिगं पंचिंदियपञ्जत्तभंगो | मणुसगदिपांचग० भुज० - अप्प० जह० एग०, उक्क० तिणिपलि० सादि० | अव०ि जह० एग०, उक्क० काय हिदी० | अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीस ० सादि० | देवगदि०४ भुज० अप्प० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीस ० सादि० । अवडि० जह० एग०, उक० कार्यद्विदी० । पंचिंदि०पर०- उस्सा० - चादर-पजत्त० पत्ते० तिण्णि पदा णाणा०: ० भंगो । अवत्त० जह० अंतो०, उक० साग० सदं । आहारदुगं तिष्णिपदा जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो० उक्क कायदी० | समचदु० - पसत्यवि० - सुभग- सुस्सर-आदें० उच्चा० तिण्णि० और तीनोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य अधिक दो छयासठ सागरप्रमाण है । अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है। नरकायुका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है । दो आयुओंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय जीवोंके समान है । देवायुके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और तीनोंका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर काय स्थितिप्रमाण है । नरकगति, चार जाति, नरकगत्यानुपूर्वी, आतम और स्थावर आदि चारके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और तीनोंका उत्कृष्ट अन्तर एक सौ त्रेसठ सागर है । अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कार्यस्थितिप्रमाण है । आरण-अच्युत कल्प में सम्यक्त्व को ग्रहणकर उसके बाद दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करनेके बाद सम्पूर्ण इकतीस सागरको बिताकर मिथ्यात्वको प्राप्त हो उसका अनुभव करता हुआ उक्त प्रकृतियोंमेंसे किन्हीं प्रकृतियोंका बन्ध करता है । तिर्यञ्चगतित्रिकका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकों के समान है । मनुष्यगतिपञ्चकके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य है । अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर काय - स्थितिप्रमाण है | अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । देवगतिचतुष्कके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और तीनोंका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । अवस्थितपद्का जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कार्यस्थितिप्रमाण है । पञ्चेन्द्रियजाति, परघात, उच्छ्रास, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर एक सौ त्रेसठ सागर है । आहारकद्विकके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमु - हूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर कार्यस्थितिप्रमाण है । समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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