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________________ १४० महाबंधे पदेसबंधाहियारे उक्क० अंतो० । अवढि० ज० एग०, उक्क० पुव्वकोडी देसू० । अवत्त० णत्थि अंतरं । अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। तथा अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। विशेषार्थ—पाँच ज्ञानावरण आदिका अवस्थितपद कायस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें हो पर मध्यमें न हो यह सम्भव है, इसलिए स्त्रीवेदी जीवोंमें इनके अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण कहा है स्त्यानगृद्धित्रिक आदिके अवस्थित और अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए । मात्र स्त्यानगृद्धित्रिकके अवक्तव्यपदका अन्तरकाल प्राप्त करनेके लिए प्रारम्भमें और अन्तमें सम्यक्त्व प्राप्त कराकर और बादमें मिथ्यात्वमें ले जाकर प्राप्त करना चाहिए । निद्रा आदिके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है यह स्पष्ट ही है । यद्यपि स्त्रीवेदमें निद्रादिककी आठवें गुणस्थानमें बन्धव्युच्छित्ति सम्भव है पर ऐसा जीव नौवें गुणस्थानमें जाकर स्त्रीवेदी न रहकर अपगतवेदी हो जाता है, इसलिए स्त्रीवेदमें इन प्रकृतियोंके अवक्तव्यपदका अन्तरकाल सम्भव न होनेसे उसका निषेध किया है। दो वेदनीय आदि परावर्तमान प्रकृतियाँ है, इसलिए इनके अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण प्राप्त होनेसे वह उक्त कालप्रमाण कहा है । इन प्रकृतियोंके शेष पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है यह स्पष्ट ही है। देशसंयम और संयमका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि कालप्रमाण है और इस कालमें क्रमसे अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क और प्रत्याख्याना वरण चतुष्कका बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके भुजगार और अल्पतरपदका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है । इनके अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है यह स्पष्ट ही है। अवक्तव्यपद अन्तर्मुहूर्तके अन्तरसे तथा कायस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें हो यह सम्भव है, इसलिए इनके अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण कहा है। स्त्रीवेदका अन्य सव भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। मात्र इसके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचवन पल्य ही प्राप्त होता है, क्योंकि स्त्रीवेदमें सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम पचवन पल्य है। तात्पर्य यह है कि किसी स्त्रीवेदी जीवने स्त्रीवेदका अवक्तव्यबन्ध करके बादमें सम्यक्त्व प्राप्त किया और अपने उत्कृष्ट काल तक उसके साथ रहकर बादमें मिथ्यात्वमें जाकर पुनः स्त्रीवेदका अवक्तव्यबन्ध किया तो इसके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त कालप्रमाण प्राप्त हो जाता है। नपुसकवेद आदिका भङ्ग स्त्रीवेदके समान घटित होनेसे उसके समान कहा है । स्त्रीवेदमें पुरुषवेद आदि का सम्यक्त्वके कालमें निरन्तर बन्ध होता रहता है, अतः इस कालके आगे पीछे इनका अवक्तव्यपद प्राप्त होनेसे इसका अन्तरकाल उक्त कालप्रमाण कहा है । तथा इनके शेष पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है यह स्पष्ट ही है। नरकायुका पूर्वकोटिकी आयुवाले जीवके त्रिभागके प्रारम्भमें और अन्तमें बन्ध होकर चार पद हों और मध्यमें बन्ध न होनेसे न हों यह सम्भव है, इसके प्रकृतिवन्धका उत्कृष्ट अन्तर भी इतना ही है, इसलिए यहाँ नरकायुके चारों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तरकालके समान कहा है। तियश्चायु और मनुष्यायुमेंसे किसी एकका कायस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें बन्ध किया और मध्यमें नहीं किया, इसलिए इनके चारों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण प्राप्त होनेसे वह उक्त कालप्रमाण कहा है । कोई स्त्रीवेदी जीव देवायुका बन्ध कर पचवन पल्यको आयुवाली देवी हुआ। पुनः वहाँसे च्युत होकर पूर्वकोटिपृथक्त्वकाल तक स्त्रीवेदके साथ परिभ्रमण कर तीन पल्यकी आयुके साथ मनुष्यिनी या तिर्यश्चनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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