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अन्तिम प्रशस्ति श्रीमलधारिमुनींद्रपदामलसरसीरुहमँगनमलिनकित्ते । प्रेमं मुनिजनकैरवसोमनेनल्माघनंदियतिपति एसेदं ॥१॥ जितपंचेषु प्रतापानलनमलतरोत्कृष्टचारित्रराराजिततेज भारतिभासुरकुचकलशालीढभाभारनूत्नायततारोदारहारं समदमनियमालकृतं माघनंदिवतिनाथं शारदाभ्रोज्वलविशदयशोवल्लरीचक्रवालं ॥२॥ जिनवक्त्रांभोजविनिर्गतहितनुतराद्धान्तकिंजल्कसुस्वादन............ज-पदनुतभूपेंद्रकोटीरसेना......... तिनिकायभ्राजितांघ्रिद्वयनखिलजगद्भव्यनीलोत्पलाहलादनताराधीशनें केवलमे भुवनदोल माघनंदिव्रतीन्द्रम् ॥३॥
श्री मलधारी मुनीन्द्र के निर्मल चरणरूपी कमलमें भौंरेके समान सुशोभित होनेवाले, निर्मल प्रेमी और मुनिजनरूपी कुमुदके लिए चन्द्रमाके समान माघनन्दि यतीन्द्र हुए ॥१॥
जिन्होंने मन्मथको जीत लिया है, जिनकी प्रतापरूपी अग्नि व्याप्त हो रही है, जिनका तेज निर्मलतर उत्कृष्ट चारित्रसे शोभायमान हो रहा है, जो सरस्वतीके प्रकाशमान कुचरूपी कलशमें संलग्न हैं, जो प्रकाशमान हैं, नवीन और दीर्घतर उदार हारस्वरूप हैं, शम, दम और नियमसे अलंकृत हैं तथा जो शरत्कालीन मेघके समान उज्ज्वल और विस्तृत यशःसमूहसे विभूषित हैं ऐसे माघनन्दि यतीन्द्र हुए ।।२।।
जो जिनेन्द्रदेवके मुखरूपी कमलसे निकले हुए हितकारी और मान्य सिद्धान्तरूपी कमल के परागका रसास्वादन करने में भौंरेके समान हैं, अनेक पृथिवीपति जिनके चरण-कमलोंमें नमस्कार करते हैं, जिनके पदयुगल अनेक सेनापतियोंके मुकुट-समूहसे सुशोभित हो रहे हैं और जो समस्त भव्यरूपी नील कमलोंको आह्लादित करनेके लिए चन्द्रमाके समान हैं,ऐसे एकमात्र माघनन्दि व्रतपति हुए ॥३॥
१. 'नल्कापुनन्वियतिपति नेसेदं महाबन्ध प्रथक पुस्तक प्रस्तावना पृ० ३६ । २. 'जितप्रपंचेषु' म०प्र० पु० प्र० पु० ३६ । ३. 'यत् सारोदारहारं' म०प्र० पु० प्र० पृ० ४० । १. 'नीलोत्पलांगा दवताराधीशने' म. प्र. पु. प्र० पृ० ४० ।
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