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________________ [ १४ ] हैं कि समस्त महाबन्धका योग्य रीतिसे सम्पादन होकर प्रकाश में आनेमें जो थोड़ी-बहुत न्यूनता रह गई है उस ओर ध्यान दिया जाना आवश्यक प्रतीत होता है। प्रसङ्गसे हम यह आशा करें तो कोई अत्युक्ति न होगी कि समस्त "महाबन्धका ताडपत्र प्रतिसे मिलान होनेकी ओर भी भारतीय ज्ञानपीठका ध्यान जायगा। दिगम्बर परम्परामें षट्खण्डागम और कषायप्राभृत मूल श्रुत माने गये हैं, इसलिए इनके प्रत्येक पद और वाक्यकी रक्षा करना दिगम्बर संघका कर्तव्य है। इस भागके सम्पादनके समय भी हमें श्रीयुक्त पं० रतनचन्द्र मुख्तार और पं० नेमिचन्द्रजी वकील सहारनपुरवालोंने सहायता प्रदान की है, इसलिए हम उनके आभारी हैं। इस भागको समाप्तिके साथ महाबन्ध"समाप्त हो रहा है। अन्य अनेक अड़चनोंके रहते हुए भी इस कार्यको सम्पन्न करनेके अनुकूल हमारा मनोबल बना रहा, यह वीतराग मागेकी उपासना का ही फल है । वस्तुतः बाह्य साधन सामग्री ऐहिक है। अन्तरङ्गका निर्माण हुए बिना केवल उसकी साधना पारमार्थिक जीवनके निर्माणमें सहायक नहीं हो सकती, यह बात पद-पद पर अनुभवमें आती है। हमें ऐसे गुरुतर कार्यके निर्वाह करनेका सुअवसर मिला और हम उसका समुचित रीतिसे निर्वाह करने में सफल हुए, इसके लिए हम अपने भीतर प्रसन्नताका अनुभव करते हैं। जिन्होंने वीतराग मार्गको जीवनमें उतारकर उसका प्रकाश किया, वे महापुरुष सबके द्वारा तो वन्दनीय हैं ही,किन्तु जो उस मार्ग पर यत्किञ्चित् चलनेका प्रयत्न करते हैं और जो ऐसे कार्यमें समुचित साहाय्य प्रदान करते हैं वे भी अभिनन्दनीय हैं । किमधिकम् । -फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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