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________________ - १३२ महाबंघे पदेसंबंधाहियारे भुज० ० अप्प० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं० सादि० । अवद्वि० णाणा० भंगो । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० बेछावट्ठि० सादि० तिष्णि पलि० दे० । है । तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है। उच्चगोत्रके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । तथा अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य अधिक दो छयासठ सागर प्रमाण है । विशेषार्थ - यहाँ सब प्रकृतियोंके यथासम्भव सब पदोंका जघन्य अन्तर काल सुगम है । साथ ही भुजगार और अल्पतर पदका जहाँ उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है। वह भी सुगम है, इसलिए इन अन्तरकालोंको छोड़कर शेष अन्तरकालका ही विचार करेंगे । पञ्चेन्द्रियद्विक और सद्विककी जो कायस्थिति कही है, उसके प्रारम्भमें और अन्तमें पाँच ज्ञानावरण आदिका अवस्थितपद हो यह भी सम्भव है और इस कायस्थितिके प्रारम्भ में और अन्तमें उपशमश्रेणिकी प्राप्ति हो यह भी सम्भव है, इसलिए यहाँ पाँच ज्ञानावरणादिके अवस्थित और अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर कार्यस्थितिप्रमाण कहा है। मिथ्यात्व आदिके भुजगार और अल्पतर पद कुछ कम दो बार छयासठ सागर काल तक न हों, यह सम्भव है, क्योंकि जीवका इतने काल तक सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के साथ रहना सम्भव है, इसलिए यहाँ इन पदों का उत्कृष्ट अन्तरकाल ओधके समान उक्त कालप्रमाण कहा है। तथा इनके अवस्थित और अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्ववत् ज्ञानावरणके समान बन जाता है, इसलिए इन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान कहा है। आगे भी जिन प्रकृतियोंके उक्त दो पदोंका या सब पढ़ोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान कहा है, वह इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। दो वेदनीय आदिके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर ओघके . समान अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होनेसे यह ओघके समान कहा है। स्पष्टीकरण ओघ प्ररूपणाके समय कर ही आये हैं। आठ कषायोंके भुजगार और अल्पतर पदका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है, क्योंकि इनका इतने काल तक बन्ध न होनेसे इन पदोंका उक्त काल तक अन्तर बन जाता है । ओघसे भी इन पदोंका इतना ही अन्तरकाल प्राप्त होता है, इसलिए यह ओघके समान कहा है। स्त्रीवेदके भुजगार अल्पतर और अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागरप्रमाण ओघमें घटित करके बतला आये हैं । यहाँ भी यह अन्तर इतना ही प्राप्त होता है, इसलिये यह अन्तर ओघके समान कहा है । पुरुषवेदके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर ओघ प्ररूपणाके समय साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण घटित करके बतला आये हैं । यहाँ भी यह अन्तर इतना ही प्राप्त होता है, इसलिए यहाँ पुरुषवेदके अवक्तव्य पदका उत्कृष्ट अन्तर ओघके समान कहा है। नपुंसकवेद आदिका कुछ कम तीन पल्य अधिक दो छयासठ सागर काल तक बन्ध न हो, यह सम्भव है । इसलिए इनके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त कालप्रमाण कहा है। नरकायु, तिर्यवायु और देवायुका यहाँ सौ सागर पृथक्त्व काल तक बन्ध न हो, यह सम्भव है, इसलिए यहाँ इनके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। यहाँ इन तीनों आयुओंका किसी एक जीवके एक साथ उक्त काल तक बन्ध नहीं होता, ऐसा ग्रहण नहीं करना चाहिए । किन्तु कभी नरकायुका, कभी मनुष्यायुका और कभी देवायुका उत्कृष्ट रूप से इतने काल तक बन्ध नहीं होता, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। इनके अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तर काल अपनी-अपनी कायस्थितिप्रमाण प्राप्त होता है, यह स्पष्ट ही है, क्योंकि किसी भी प्रकृतिका बन्ध होते समय भुजगार और अल्पतरपदके समान अवस्थितपद होना ही चाहिए - ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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