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________________ भुजगारबंधे अंतरकालाणुगमो १३३ १५८. पंचमण-पंचवचि० पंचणा०-णवदंस-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दुगु एकान्त नियम नहीं है । सामान्यसे एकेन्द्रियोंमें बँधनेवाली प्रकृतियोंके अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तरकाल जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है। पर यहाँ कायस्थिति इस कालसे न्यून है, इसलिए कायस्थितिके भीतर प्रारम्भमें और अन्तमें अवस्थित पद कराकर यह अन्तर काल कहा है । सर्वत्र अवस्थितपदके विषयमें यह नियम समझ लेना चाहिए । हाँ, जिन प्रकृतियों का एकेन्द्रियोंमें या अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंमें बन्ध नहीं होता, उनके अवस्थितपदका अन्तर काल जगश्रोणिके असंख्यातवें भागसे अधिक भी बन जाता है । मनुष्यायुका इनकी उत्कृष्ट कायस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें बन्ध हो तथा मध्यमें बन्ध न हो,यह सम्भव है, और बन्ध होते समय भुजगार आदि चारों पद भी सम्भव हैं, इसलिए यहाँ इसके चारों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर अपनी-अपनी कायस्थितिप्रमाण कहा है। नरकगति आदिका अधिकसे अधिक एक सौ पचासी सागर काल तक बन्ध नहीं होता-ऐसा नियम है । उसके बाद नौवें अवेयकसे आकर मनुष्य होने पर इनका बन्ध होने लगता है, इसलिए इतने काल तक इनके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्यपदके न प्राप्त होनेसे यहाँ इनका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। उक्त मार्गणाओंमें तिर्यश्चगति आदिका एकसौ त्रैसठ सागर काल तक बन्ध न हो,यह सम्भव है, इसलिए इनके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है । तथा इनके अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तर ज्ञानावरणके समान जगश्रोणिके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है,यह स्पष्ट ही है। आगे भी जिन प्रकृतियोंके अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तर ज्ञानावरणके समान कहा है,वह इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए । दो गति आदिके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्यपद साधिक तेतीस सागर काल तक न हों, यह सम्भव है, अतः यहाँ इन प्रकृतियोंके उक्त पदोंका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है। यहाँ साधिकसे दो मुहूर्त लेने चाहिए । मात्र मनुष्यगतिद्विकका सातवें नरकमें उत्पन्न कराकर यह अन्तरकाल प्राप्त करना चाहिए और शेषका उपशमश्रोणिसे सर्वार्थसिद्धिमें उत्पन्न कराकर यह अन्तरकाल प्राप्त करना चाहिए। पञ्चेन्द्रियजाति आदिके तीन पदोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल जैसा ज्ञानावरणकी अपेक्षा घटित करके बतला आये हैं, उसी प्रकार यहाँ भी घटित कर लेना चाहिए । तथा इन प्रकृतियोंका एक सौ पचासी सागर प्रमाण काल तक निरन्तर बन्ध सम्भव है, इसलिए इनके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर एक सौ पचासी सागर कहा है । औदारिकशरीर आदिका भोगभूमिमें और उसके पहले सम्यग्दृष्टिके बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके भुजगार और अल्पतरपदका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य कहा है । तथा सातवें नरकमें औदारिकद्विकका और वहीं पर सम्यग्दृष्टिके वर्षभनाराचसंहननका निरन्तर बन्ध सम्भव है। और वहाँसे निकलने पर भी इनका अवक्तव्यपद प्राप्त होनेमें अन्तर्मुहूर्त काल लग सकता है । यतः यह काल साधिक तेतीस सागर होता है, अतः यह अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है । समचतुरस्रसंस्थान आदिके भुजगार आदि तीन पदोंका उत्कृष्ट अन्तर काल ज्ञानावरणके समान घटित कर लेना चाहिए । तथा इनका कुछ कम तीन पल्य अधिक दो छायाछठ सागर काल तक निरन्तर बन्ध सम्भव है, इसलिए इनके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त कालप्रमाण कहा है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है,यह स्पष्ट ही है। उच्चगोत्रका सातवें नरकमें मिथ्यादृष्टिके बन्ध नहीं होता, इसलिए इसके भुजगार और अल्पतरपदका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है । तथा इसका कुछ कम तीन पल्य अधिक दो छयासठ सागर काल तक निरन्तर बन्ध सम्भव है, इसलिए इसके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। १५८. पाँच मनोयोगी और पाँच वचनयोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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