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________________ १२४ महाबंधे पदेसबंधाहियारे १५३. पंचिंदि तिरि०अपज० धुवियाणं भुज०-अप्प०-अवहि. जह० एग०, उक्क० अंतो० । सेसाणं भुज०-अप्प०-अवहि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवत्त० अन्तरकाल ले आना चाहिए । इनके अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है, यह स्पष्ट ही है । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका उत्कृष्ट बन्धान्तर पूर्वकोटिकी आयुवाले उक्त तिर्यश्चोंमें ही सम्भव है, इसलिए इनके भुजगार और अल्पतरपदका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि प्रमाण कहा है । तथा पूर्वकोटिपृथक्त्व कालके प्रारम्भमें और अन्तमें संयमासंयम होकर पुनः असंयममें जाना सम्भव है, इसलिए यहाँ इनके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। इनके अवस्थित पदका अन्तर ज्ञानावरणके समान है,यह स्पष्ट ही है । सातावेदनीयदण्डकके अवस्थित पदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान और शेष तीन पदोंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है,यह भी स्पष्ट है। विशेष खुलासाके लिए उक्त स्थानोंको देखकर अन्तरकालकी संगति बिठला लेनी चाहिए । यहाँ सातावेदनीयके तीन पदोंका जो अन्तरकाल कहा है वह पुरुषवेदके तीन पदोंका भी बन जाता है, अतः इसे सातावेदनीयके समान जाननेकी सूचना की है। तथा सामान्य तिर्यश्चोंमें पुरुषवेदके अवक्तव्यपदका जो अन्तर काल घटित करके बतला आये हैं,वह यहाँ भी बन जाता है, इसलिए इसे सामान्य तिर्यञ्चोंके समान जाननेकी सूचना की है। सामान्य तिर्यश्चोंमें नपुंसकवेदके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण पहले घटित करके बतला आये हैं, वह इन तियञ्चोंकी मुख्यतासे ही सम्भव है। इसलिए यहाँ नपुंसकवेद आदि प्रकृतियोंके उक्त दो पदोंका भङ्ग सामान्य तियञ्चोंमें कहे गये नपुंसकवेदके उक्त दो पदोंके अन्तरकालके समान कहा है। इनके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए । तथा इनके इन प्रकृतियोंका अवस्थितपद पूर्वकोटिपृथक्त्वके प्रारम्भमें और अन्तमें हो और मध्यमें न हो यह सम्भव है, इसलिए इनके इस पदका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त कालप्रमाण कहा है। सामान्य तिर्यञ्चोंमें तीन आयुओंके सब पदोंका अन्तरकाल उक्त तीन प्रकारके तियञ्चोंकी मुख्यतासे ही कहा है, इस लिए यहाँ तीन आयुओंके सब पदोंके अन्तरकालको सामान्य तिर्यश्चोंके समान जाननेकी सूचना की है। तिर्यञ्चायुके तीन पदोंका भङ्ग तो सामान्य तिर्यञ्चोंके समान बन ही जाता है, क्योंकि वहाँ इन्हीं तियञ्चोंकी मुख्यतासे इन पदोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल प्राप्त होता है । पर इसके अवस्थित पदके उत्कृष्ट अन्तरकालमें फरक है । बात यह है कि इन तियञ्चोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्यप्रमाण है और यहाँ नपुंसकवेदके अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तरकाल इतना ही बतला आये हैं, इसलिए यहाँ तिर्यञ्चायुके अवस्थित पदके अन्तरकालको नपुंसकवेदके समान जाननेकी सूचना की है। देवगति आदिके भुजगार आदि पदोंका अन्तर ज्ञानावरणके समान यहाँ भी घटित हो जाता है, इसलिए इसे ज्ञानावरणके समान जाननेकी सूचना की है । तथा इनके अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण प्राप्त होनेसे वह अलगसे कहा है। उक्त तिर्यञ्चोंमेंसे कोई एक तिर्यञ्च इन प्रकृतियोंके बन्धका प्रारम्भ करके सम्यग्दृष्टि हो जाता है। फिर भवके अन्तमें मिथ्यादृष्टि होकर और इनका अन्य प्रकृतियों द्वारा बन्धान्तर करके पुनः बन्ध प्रारम्भ करता है, तो उसके इनके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि प्रमाण प्राप्त होनेसे वह उक्त काल प्रमाण १५३ पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । शेष प्रकृतियोंके भजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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