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________________ भुजगारबंधे अंतरकालाणुगमो १२३ अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तिण्णि पलिदो० देसू० । अवढि० णाणाभंगो । अपच्चक्खाण०४ भुज-अप्प० जह० एग०, उक्क० पुव्वकोडी० दे० । अवट्टि० णाणाभंगो । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पुवकोडिपुध० । साददंडओ अवढि णाणा भंगो। सेसाणि पदाणि तिरिक्खोघं । पुरिस० तिण्णिपदा० सादभंगो । अवत्त० तिरिक्खोघं । णस-तिण्णिगदि-चदुजादि-ओरा०--पंचसंठा०-ओरा०अंगोव०-छस्संघ०-तिण्णिआणु० आदाउजो०--अप्पसत्थ०--थावरादि०४-दूभग-दुस्सर-अणादें-णीचा० भुज०-अप्प० तिरिक्खोघ-णवंसगभंगों । अवढि० जह० एग०, उक्क० पुवकोडिपुध० । अवत्त० जह अंतो०, उक्क० पुव्वकोडी देसू० । तिण्णिआउ० तिरिक्खोघं । तिरिक्खाउ' तिण्णि पदा तिरिक्खोघं । अवहि० णभंगो। देवगदि-पंचिंदि०-वेउवि०-समचदु०-वेउ०अंगो०देवाणु०-पर०-उस्सा०-पसत्थ०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आदें-उच्चा० भुज-अप्प०अवहि० णाणा०मंगो। अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पुव्वकोडी दे। अन्तमुहूर्त है और तीनों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्यप्रमाण है । तथा इनके अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। तथा अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। सातावेदनीयदण्डकके अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है तथा शेष पदोंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है । पुरुषवेदके तीन पदोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है और अवक्तव्यपदका भङ्ग सामान्य तिर्यश्चोंके समान है। नपुंसकवेद, तीन गति, चार जाति, औदारिकशरीर, पाँच संस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, तीन आनुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके भजगार और अल्पतरपदका भङ्ग सामान्य तियश्चोंके कहे गये नपुंसकवेदके समान है । अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्व कोटि पृथक्त्वप्रमाण है । अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। तीन आयुओंका भङ्ग सामान्य तिर्यश्चोंके समान है । तिर्यश्चायुके तीन पदोंका भङ्ग सामान्य तिर्यश्चोंके समान है । अवस्थितपदका भङ्ग नपुंसकवेदके समान है। देवगति, पञ्चेन्द्रियजाति, वैकियिकशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छास, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। विशेषार्थ-इन तीन प्रकारके तियञ्चोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्यप्रमाण होनेसे यहाँ ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अवस्थितपदका उक्त कालप्रमाण उत्कृष्ट अन्तरकाल कहा है । कारणका निर्देश पहले कर आये हैं । यहाँ स्त्यानगृद्धित्रिक आदिका उत्कृष्ट बन्धान्तर उत्तम भोगभूमिमें ही सम्भव है, अतः इनके भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य कहा है। यहाँ प्रारम्भमें और अन्तमें उक्त पद कराकर यह १. ता०प्रतौ पदाणि 'तिरिक्खोघं णबुं०' इति पाठः। २. ता.आ०प्रत्योः 'अप्प० णqसगभंगो' इति पाठः। ३ ता०प्रतौ देसू० । तिरिक्खाउ०, इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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