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________________ भुजगारबंधे अंतरकालाणुगमो १२५ जह• उक्क० अंतो०। एवं सव्वअपजत्तयाणं तसाणं थावराणं सव्वसुहुमपज्जत्तयाणं च । १५४. मणुस०३ पंचिंदियतिरिक्खभंगो। णवरि धुवियाणं उवसम० परिवदमाणयाणं अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पुव्वकोडिपुधत्तं । पञ्चक्खाण०४ अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पुव्वकोडिपुधत्त । आहार०-आहार अंगो० तिण्णि पदा जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पुव्वकोडिपुधः । तित्थ० भुज०-अप्प० णाणभंगो। अवढि० जह० एग०, अवत्त० ज० अंतो०, उक० पुव्वकोडी देसू० । मुहूर्त है । अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । इसी प्रकार त्रस और स्थावर सब अपर्याप्तकोंमें तथा सब सूक्ष्म पर्याप्तकोंमें जानना चाहिए। विशेषार्थ—यहाँ सब प्रकृतियाँ दो भागोंमें विभक्त हो गई हैं-ध्रुवबन्धवाली और शेष । इन सबके भुजगार आदि तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है, क्योंकि अपर्याप्त जीवोंकी भवस्थिति और कायस्थिति अन्तर्मुहूर्तसे अधिक नहीं होती। तथा जो शेष प्रकृतियाँ हैं उनका अवक्तव्यपद भी यहाँ सम्भव है। पर एक बार बन्ध होकर पुनः उस प्रकृतिके बन्ध होनेमें अन्तर्मुहूर्त कालका अन्तर पड़ता है, इसलिए इनके इस पदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है। यहाँ अन्य जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं, उन सबकी कायस्थिति अन्तमुहूर्तप्रमाण होनेसे उनमें यह व्यवस्था बन जाती है, इसलिए उनमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान जाननेकी सूचना की है। १५४ मनुष्यत्रिकमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके उपशमश्रेणिसे गिरनेवाले जीवोंमें अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। प्रत्याख्यानावरणचतुष्कके अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। आहारकशरीर और आहारकआङ्गोपाङ्गके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके भुजगार और अल्पतरपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। विशेषार्थ—पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चोंकी और उक्त तीन प्रकारके मनुष्योंकी कायस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य होनेसे तीन प्रकारके मनुष्योंमें अन्य सब प्रकृतियोंके सब पदोंका अन्तरकाल पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चोंके समान बन जाता है। मात्र मनुष्योंमें प्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानोंकी प्राप्ति सम्भव है और इनमें आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध भी सम्भव है, इसलिए इस दृष्टिसे पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चोंकी अपेक्षा अन्तरकालमें जो विशेषता आती है,उसका अलगसे निर्देश किया है। उदाहरणार्थ-इन तीन प्रकारके मनुष्योंमें उपशमश्रोणिकी प्राप्ति सम्भव है, इसलिए इनमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तराय इन इकतीस प्रकृतियोंका उपशमश्रेणिकी अपेक्षा अवक्तव्यपद भी सम्भव है, इसलिए उसका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अलगसे कहा है। इसी प्रकार यहाँ संयम ग्रहण सम्भव होनेसे प्रत्याख्याना १. ता०प्रतौ 'सव्वसुहुमअपजत्तयाणं' इति पाठः । २. ता०प्रतौ परिपदया ( मा) णं' इति पाठः । ३. आ०प्रतौ 'जह० अंतो०, आहार०' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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