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________________ १२० महाबंधे पदेसबंधाहियारे १५१. तिरिक्खेसु धुवियाणं भुज-अप्पद०-अवढि० ओघं । थीणगि'०३-मिच्छ०अणंताणु०४ भुज०-अप्पद० ज० एग०, उक्क० तिण्णिपलिदो० देसू० । अवढि०अवत्त० ओघं । दोवेदणी०-चदुणोक०-थिरादितिण्णियु० चत्तारि पदा ओघ । [अपच्चक्खाण०४ ओघमंगो] । इत्थि० भुज-अप्पद० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तिण्णि पलिदो० देसू । अवढि० ओघं । पुरिस० भुज०-अप्पद०-अवढि० णाणा भंगो। अवत्त० जह० अंतो०, उक्कै तिण्णिपलिदो० देसू० । णबुंस०-चदुजादि[ओरा०-] पंचसंठा-ओरालि अंगो०-छस्संघ०-आदाउज्जो०-अप्पसत्थ०-थावरादि०४दृभग-दुस्सर-अणार्दै भुज-अप्पद० जह० एग०, उक० पुव्वकोडि० देसूणं० । अवढि० णाणा०मंगो । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पुव्वकोडी देसू०। तिण्णिआउ० भुज०अन्तर्मुहूर्तके अन्तरसे दो बार बन्ध होना सम्भव है और नरकभवके प्रारम्भमें इनका बन्ध प्रारम्भ करे । तथा सम्यक्त्वके साथ रह कर भक्के अन्तमें मिथ्यादृष्टि होकर अन्य सप्रतिपक्ष प्रकृतियोंसे अन्तरित कर पुनः इनके बन्धका प्रारम्भ करे, यह भी सम्भव है। यही कारण है कि यहाँ इनके अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है। दो आयुओंके भुजगार आदि तीन पद एक समयके अन्तरसे हो सकते हैं, इसलिए दोनों आयुओंके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय कहा है,पर दूसरी बार आयुबन्धका प्रारम्भ कमसे कम अन्तमुहर्त काल गये बिना नहीं हो सकता, इसलिए इसका जघन्य अन्तर अन्तर्महत कहा है । तथा नरकमें प्रथम विभागमें आयु बन्ध हो और उसके बाद कुछ कम छह महीनाका अन्तर देकर आयुबन्ध हो, यह सम्भव है।यही देखकर यहाँ इनके चारों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महीना कहा है । तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करनेवाला जीव यदि नरकमें उत्पन्न होता है तो उसकी आयु साधिक तीन सागरसे अधिक नहीं होती, यह देखकर यहाँ इसके अवस्थित पदका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। सामान्यसे नरकमें और प्रथम नरकमें तीर्थङ्कर प्रकृतिके अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है,यह स्पष्ट ही है। शेष कथन सुगम है। १५१. तिर्यञ्चोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका भङ्ग ओघके समान है।स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। अवस्थित और अवक्तव्यपदका भङ्ग ओघके समान है। दो वेदनीय, चार नोकषाय और स्थिर आदि तीन युगलके चार पदोंका भङ्ग ओघके समान है। अप्रत्याख्यानावरण चतुष्कका भङ्ग ओघके समान है। स्त्रीवेदके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और तीनों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। तथा अवस्थितपदका भङ्ग ओघके समान है। पुरुषवेदके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। नपुंभकवेद, चार जाति, औदारिकशरीर, पाँच संस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेयके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है । अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। तीन आयुओंके १. ता०प्रतौ 'ओघ । थि (थी) णगि०, इति पाठः । २. आ०प्रतौ 'अवत्त० जह० उक्क०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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