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________________ भुजगारबंधे अंतरकालाणुगमो ११६ देसू० । तित्थ० भुज-अप्प० जह० एग०, उक्क० अंतो० अवढि० जह'० एग०, उक्क० तिणि सागरो० सादि०। अवत्त० णत्थि अंतरं । एवं सव्वणेरइयाणं अप्पप्पणो अंतरं णेदव्वं । णवरि पढमाए पुढवीए तित्थ० अवत्त० णत्थि अंतरं । है । तीर्थङ्कर प्रकृतिके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन सागर है। अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार सब नारकियोंमें अपना-अपना अन्तरकाल ले आना चाहिए । इतनी विशेषता है कि पहली पृथिवीमें तीर्थङ्कर प्रकृतिके अवक्तव्य पदका अन्तरकाल नहीं है। विशेषार्थ-नारकियोंमें जो ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ हैं, उनका अवस्थित पद भवके प्रारम्भमें और अन्तमें हो मध्यमें न हो यह भी सम्भव है, इसलिए इनके उक्त पदका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है। यहाँ इन प्रकृतियोंका अवक्तव्यपद नहीं होता, इसलिए उसकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं कहा है। स्त्यानगृद्धि तीन आदिके चारों पदोंका जो उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम तेतीस सागर कहा है,उसका खुलासा इस प्रकार है-कोई जीव नरकमें जांकर और सम्यक्त्वको प्राप्त कर इनका अबन्धक हुआ । पुनः कुछ कम तेतीस सागर काल तक सम्यक्त्वके साथ रहकर और मिथ्यात्वमें जाकर पुनः इनका बन्ध करने लगा । इसप्रकार तो र, अल्पतर और अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर प्राप्त हो जाता है। तथा नारकी होकर प्रारम्भमें अवस्थित पद किया और अन्तमें अवस्थितपद किया, इसलिए इसका भी उक्त कालप्रमाण उत्कृष्ट अन्तरकाल प्राप्त हो जाता है। यहाँ जो सप्रतिपक्ष प्रकृतियों हैं उनके अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त तो सुगम है,पर स्त्यानगृद्धित्रिक आदि आठ प्रकृतियोंके अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त दो बार सम्यक्त्व कराकर और मिथ्यात्वमें ले जाकर प्राप्त कर लेना चाहिए। दो वेदनीय आदि परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके भुजगार और अल्पतरपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान प्राप्त होनेमें कोई बाधा नहीं आती,पर अवस्थितपदका जो उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है, वह कैसे बनता है यह विचारणीय है। बात यह है कि यहाँ अवस्थितपद प्रत्येक जीवके होना ही चाहिए-ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि अवस्थितपदके कारणभूत जो योगस्थान हैं वे अधिकसे अधिक जगश्रोणिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके अन्तरसे भी होते हैं और एक समयके अन्तरसे भी होते हैं।पर नारकी जीवका नरकमें उत्कृष्ट अवस्थानकाल तेतीस सागरसे अधिक नहीं होता और इस कालके भीतर अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तर काल दिखाना आवश्यक था, इसलिए जिस जीवने इन प्रकृतियोंका नरकभवके प्रारम्भमें अवस्थित पद किया और नरकभवके अन्तमें अवस्थित पद किया, मध्यमें नहीं किया उसको लक्ष्यमें रखकर अवस्थितपदका यहाँ उत्कृष्ट अन्तरकाल कहा है। अन्यत्र जहाँ भी भवस्थिति और कायस्थितिमें फरक नहीं है या कायस्थिति जगश्रोणिके असंख्यातवें भागसे न्यन है.वहाँ इसी बीजपदके अनुसार अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तरकाल ले आना चाहिए । तथा इन दो वेदनीय आदिके दो बार बन्धके प्रारम्भमें अन्तर्मुहूर्त काल लगता है, इसलिए इनके अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है। पुरुषवेद आदि सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ तो हैं,पर सम्यग्दृष्टिके ये निरन्तरबन्धिनी हैं, इसलिए यहाँ इनके प्रारम्भके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान बन जाता है । अब रहा अवक्तव्यपद सो इनका मिथ्यादृष्टिके १. ता प्रतौ 'जह० एग, अवठि. नह' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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