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________________ महाबंधे पदेसबंधाहियारे जह० एग०, १५०. णिरएसु धुवियाणं भुज० अप्प० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवद्वि०. उक्क० तैंतीसं० सू० । श्रीणगि ०३ - मिच्छ० - अनंताणु ०४ - इत्थि० णवुंस० दोगदि-पंच संठा०-पंच संघ० - दोआणु ० उज्जो० - अप्पसत्थ० - दूभग- दुस्सर-अणादें० - दोगोद ० भुज० - अप्पद ० -अवट्ठि० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं० सू० । दोवेद ० - चदुणोक० - थिरादितिष्णियुग० भुज० - अप्प ० -अवट्ठि० णाणा० भंगो । अवत्त • जह० उक० अंतो० । पुरिस० - समचदु० - वञ्जरि०-पसत्थ० सुभग- सुस्सर-आदें० भुज०अप्पद ० - अवडि० णाणा० भंगो । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं० दे० । दोआउ० भुज० - अप्पद ० - अवडि० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० छम्मासं० ११८ तीर्थङ्कर प्रकृतिका और अन्तरकाल सुगम है । केवल अवस्थित और अवक्तव्यपदके उत्कृष्ट अन्तरकालका विचार करना है । इस प्रकृतिका उत्कृष्ट बन्ध काल साधिक तेतीस सागर है । यह सम्भव है कि बन्धकालके प्रारम्भ में और अन्तमें अवस्थित पद हो और मध्यमें न हो, इसलिए तो इसके अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है । तथा किसीने तीर्थङ्कर प्रकृति बन्धका प्रारम्भ में अवक्तव्यपद किया और साधिक तेतीस सागर काल तक निरन्तर बन्ध करनेके बाद मनुष्य पर्याय में उपशमश्र णिपर चढ़कर और इसका अबन्धक होकर उतरते समय पुनः बन्ध प्रारम्भ किया । इस प्रकार अवक्तव्यपदका साधिक तेतीस सागर उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हो जानेसे यह उक्त कालप्रमाण कहा है। इसके अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त इसके बन्धका प्रारम्भ कराके और अन्तर्मुहूर्त के भीतर उपशमश्रेणि पर चढ़ा कर और मरण कराकर देवोंमें उत्पन्न कराकर पुनः बन्धका प्रारम्भ करानेसे प्राप्त हो जाता है । नीचगोत्रका अन्य सब भङ्ग नपुंसकवेद के समान है । मात्र इसके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण प्राप्त होने से वह अलगसे कहा है। अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों में इतने काल तक इसका निरन्तर बन्ध होता रहता है, अतः इसके प्रारम्भमें और बादमें नीचगोत्रके बन्धका प्रारम्भ कराकर अवक्तव्यपदका यह अन्तर काल ले आना चाहिए। अचक्षुदर्शनी और भव्य जीवोंमें यह ओघप्ररूपणा अविकल घटित हो जानेसे उनमें ओघके समान जाननेकी सूचना की है । १५०. नारकियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद, नपुंसक वेद, दो गति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भाग, दुःस्वर, अनादेय और दो गोत्रके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । दो वेदनीय, चार नोकषाय और स्थिर आदि तीन युगलके भुजगार अल्पतर और अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । पुरुषवेद, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त विहायो - गति, सुभग, सुस्वर और आदेयके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । दो आयुओंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपद्का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महीना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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