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________________ भुजगारबंधे अंतरकालाणुगमो तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर एकसौ त्रेसठ सागर कहा है । मात्र तिर्यश्चगतिद्विकके और उद्योतके अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त होता है, क्योंकि इनका एक बार बन्ध प्रारम्भ होकर और बीचमें कमसे कम अन्तर पड़कर पुनः दूसरी बार इनके बन्धका प्रारम्भ अन्तर्मुहूर्तसे पहले नहीं हो सकता । और तिर्यञ्चगतिद्विकका निरन्तर बन्ध तैजस्कायिक और वायुकायिक जीवों में असंख्यात लोकप्रमाण काल तक होता रहता है, इसलिए इन दोनोंके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण । इन तीनों प्रकृतियोंके अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है, यह स्पष्ट ही है। मनुष्यगति आदि तीनका बन्ध अग्निकायिक और वायुकायिक जीव नहीं करते, इसलिए इनके चारों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। तथा इनके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय और अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त अन्य प्रकृतियोंका पूर्वमें अनेक बार घटित करके बतला आये हैं, उसी प्रकार यहाँ भी घटित कर लेना चाहिए। चार जाति आदिका बन्ध निरन्तर एक सौ पचासी सागर तक नहीं होता, इसलिए इनके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। इनके इन तीन पदोंके जघन्य अन्तर कालका विचार तथा अवस्थितपदके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर कालका विचार सुगम है। पञ्चेन्द्रियजाति आदिका एक सौ पचासी सागर काल तक निरन्तर बन्ध सम्भव है, इसलिए इनके अवक्तव्य पदका उत्कृष्ट अन्तर उक्त काल प्रमाण कहा है। इनका शेष विचार सुगम है । जो मनुष्य प्रथम त्रिभागमें मनुष्यायुका बन्ध कर और क्षायिकसम्यग्दृष्टि होकर उत्तम भोगभूमिमें जन्म लेता है उसके साधिक तीन पल्य तक औदारिकशरीरका बन्ध नहीं होता, इसलिये इसके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है । इसके अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर जगश्रोणिके असंख्यातवें भागका स्पष्टीकरण ज्ञानावरणके समान कर लेना चाहिए। तथा इसका कमसे कम अन्तर्मुहूर्तके अन्तरसे बन्ध सम्भव है और एकेन्द्रियों में इसका अनन्त काल तक निरन्तर बन्ध होनेसे इतने कालके अन्तरसे भी इसका उक्त पद सम्भव है, इसलिए इसके अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त कालप्रमाण कहा है। औदारिक शरीर अङ्गोपाङ्ग और वर्षभनाराचसंहननके अन्य पदोंका अन्तर काल औदारिकशरीरके समान बन जानेसे उस प्रकार जाननेकी सूचना की है। मात्र इनके अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर प्राप्त होनेसे यह उक्त कालप्रमाण कहा है। उत्कृष्ट अन्तरकाल अलग-अलग प्रकृतिका विचार कर घटित कर लेना चाहिए । आहारकद्विकका बन्ध अर्धपुद्गलपरावर्तनके प्रारम्भमें और अन्तमें करानेसे इनके चारों पदोंका उक्त काल प्रमाण अन्तर प्राप्त हो जाता है। शेष विचार सुगम है। समचतुरस्रसंस्थान आदिके प्रारम्भके तीन पदोंका जो अन्तरकाल कहा है वह ज्ञानावरणके ही समान है, इसलिए ज्ञानावरणके प्रसंगसे जिस प्रकार घटित. करके बतला आये हैं उसी प्रकार यहाँ पर भी घटित कर लेना चाहिए। तथा इनका कमसे कम अन्तर्मुहूर्तके अन्तरसे दो बार बन्ध प्रारम्भ हो सकता है और कुछ कम तीन पल्य अधिक दो बार छयासठ सागरके अन्तरसे भी दो बार बन्ध प्रारम्भ हो सकता है, इसलिए इनके अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमहत और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य अधिक दो छयासठ सागरप्रमाण कहा है। यहाँ जो उत्कृष्ट अन्तरकाल कहा है सो इतने काल तक तो इनका निरन्तर बन्ध होता रहता है, किन्तु इसके प्रारम्भमें इनका बन्ध प्रारम्भ करावे और सम्यक्त्वके कालके पूर्ण होनेपर मिथ्यात्वमें ले जाकर तथा अन्य सप्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध कराकर पुनः इनके बन्धका प्रारम्भ करावे और इस प्रकार यह उत्कृष्ट अन्तर काल ले आवे । अन्यत्र भी जहाँ विशेष खुलासा नहीं किया हो, वहाँ इसी प्रकार खुलासा कर लेना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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