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________________ ११६ महाबंधे पदेसबंधाहियारे उसका अलगसे खुलासा नहीं करेंगे। इनके अवस्थित और अवक्तव्यपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है ,यह स्पष्ट है। मात्र यहाँ पर अवक्तव्य पदका अन्तरकाल क्रमसे संयमासंयम और संयमको प्राप्त करके घटित कर लेना चाहिए । स्त्रीवेदके भुजगार आदि तीन पदोंका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है,यह स्पष्ट ही है । तथा इसके अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है, क्योंकि यह सप्रतिपक्ष प्रकृति होने से अन्तर्मुहूर्तके भीतर इसका दो बार बन्ध प्रारम्भ हो सकता है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागर है, क्योंकि इतने काल तक जीवके बीचमें सम्यग्मिथ्यात्वके साथ सम्यग्दृष्टि रहनेसे इसका बन्ध नहीं होता, इसलिए इसके अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल क्रमसे उक्त कालप्रमाण कहा है । पुरुषवेदके प्रारम्भके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है,यह स्पष्ट ही है । तथा यह सप्रतिपक्ष प्रकृति होनेसे अन्तर्मुहूर्तके भीतर एक तो इसका दो बार बन्ध प्रारम्भ हो सकता है, दूसरे एक बार इसका बन्ध प्रारम्भ करके कोई जीव सबसे उत्कृष्ट काल तक बीचमें सम्यग्मिथ्यात्वके साथ सम्यग्दृष्टि रहा और वहाँ इसका बन्ध करता रहा । पुनः मिथ्यात्वमें आकर और इसका अबन्धक होकर अन्तर्मुहूर्तमें पुनः इसका बन्ध करने लगा। यह काल साधिक दो छयासठ सागर प्रमाण होता है, इसलिए इसके अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्तप्रमाण और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक दो छथासठ सागरप्रमाण कहा है। नपुंसकवेद आदिके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है,यह तो स्पष्ट ही है । तथा भोगभूमिमें पर्याप्त होनेपर इनका बन्ध नहीं होता और वहाँसे निकलनेके पूर्व जो सम्यक्त्वको प्राप्त कर बीचमें सम्यग्मिथ्यात्वके साथ कुछ कम दो छयासठ सागरप्रमाण काल तक सम्यक्त्वके साथ यापन करता है, उस जीवके भी इन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता। उसके बाद मिथ्यात्वमें जाने पर उक्त दो पदों के साथ बन्ध होने लगता है, अतः इन प्रकृतियोंके उक्त दो पदोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्य अधिक दो छयासठ सागरप्रमाण कहा है। इनके अवस्थित पदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान घटित कर लेना चाहिए | तथा ये सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त प्राप्त होनेसे वह उक्त कालप्रमाण कहा है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य अधिक दो छयासठ सागर जैसा भुजगार आदि दो पदोंका घटित करके बतलाया है, उस प्रकार घटित कर लेना चाहिए । तीन आयु आदि नौ प्रकृतियोंके तीन पद तो एक समयके अन्तरसे हो सकते हैं तथा अवक्तव्यपद कमसे कम अन्तमुहूर्तके अन्तरसे ही होगा, क्योंकि प्रथम बार बन्धका प्रारम्भ और अन्त होकर पुनः बन्धका प्रारम्भ होनेमें लगनेवाला काल अन्तर्मुहूर्तसे कम नहीं हो सकता, इसलिए आदिके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय और अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । तथा लगातार अनन्त काल तक एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय पर्यायमें जीवके रहते हुए इनका बन्ध नहीं होता । तथा बन्धके अभावमें भुजगार आदि पद तो सम्भव ही नहीं हैं, अतः इन प्रकृतियोंके चारों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त कालप्रमाण कहा है। तिर्यञ्चायुके भुजगार आदि दो पदोंका जघन्य अन्तर एक समय और अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त पूर्वमें कहे गये तीन आयु आदिके तीन पदोंकी अपेक्षा कहे गये जघन्य अन्तरकालके समान ही घटित कर लेना चाहिए। तथा कोई जीव यदि अधिकसे अधिक काल तक तिर्यश्च न हो तो वह सौ पृथक्त्व सागर काल तक ही नहीं होता, इसलिए तिर्यश्चायुके उक्त तीन पदोंका उत्कृष्ट अन्तर उक्त काल प्रमाण कहा है । इसके अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान प्राप्त होता है यह स्पष्ट ही है । जो सम्यक्त्व और बीचमें सम्यग्मिथ्यात्वके साथ १३२ सागर बिताकर अन्तमें नौवें वेयकमें उत्पन्न होता है, उसके इतने काल तक तिर्यश्चगतित्रिकका बन्ध नहीं होता, इसलिए तिर्यञ्चगतिद्विकके भुजगार और अल्पतर पदका तथा उद्योतके प्रारम्भके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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